मीडिया में स्वयंसेवकों की सक्रियता के पीछे क्या है संघ की रणनीति..
अंशुमान त्रिपाठी
मीडिया के मुखौटे में सियासत ले जाएगी कहां तक
मीडिया के माध्यम से नफरत की सियासत का क्या है असली मकसद
राजीव त्यागी की मौत कांग्रेस के लिए राजनीतिक नुकसान है तो समाज के लिए एक चेतावनी भी है. राजीव त्यागी जैसे गैर-बीजेपी प्रवक्ताओं पर होने वाले इन भाषाई हमलों को नए सिरे से देखने की ज़रूरत है. आमतौर पर न्यूज़ स्टूडियों में होने वाले इन मुकाबलों को हम मुर्गे लड़ाने या स्पेन के मेटाडोर से जोड़ कर देखते हैं. लेकिन ये मुकाबले हमें खून देखने का अभ्यस्त बना रहे हैं. विरोधी विचारधारावालों के खून के लिए दर्शकों में प्यास पैदा की जा रही है. ये मामूली लड़ाई नहीं है. ये देश की सत्ता पर अगले पचास बरस तक काबिज़ बने रहने की लड़ाई है. धर्मनिरपेक्षता औऱ सांप्रदायिकता जैसे शब्द बेमानी हो गए हैं. सत्ता पर काबिज़ एक सांप्रदायिकता पिछले छह साल से दूसरी सांप्रदायिकता को उकसा रही है. फिर दोनों सांप्रदायिकताएं एक दूसरे पर टूट पड़ती हैं. ऐसे में इखलाक मोहब्बत भाईचारा, प्रेम सद्भाव, कौमी एकता, वसुधैव कुटुंबकम की भावना रखने वाले हाशिए पर चले जाते हैं. चाहे वो पत्रकार हों या प्रवक्ता..या फिर राजनीतिक पार्टी. और सहिष्णु हिंदू या धर्मनिरपेक्ष, समता, समानता,न्याय के पैरोकार स्टूडियों और बाहर इन हमलों के शिकार हो रहे हैं. खुद राज्य व्यवस्था बुद्धिजीवी तबके को जेल में ठूंस रही है या इन पर मुकदमें लाद रही है.
इसमें कोई संदेह नहीं कि आपसी प्रेम-भाईचारा पैदा करने में सदियां लग जाती हैं. लेकिन घृणा और संदेह कान में एक फुसफुसाहट से पैदा हो जाती है. नफरत का ये बरगद सौ बरस का हो चुका है. 2025 को हिंदूराष्ट्र की सोच वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सौ वर्ष पूरे होने वाले हैं. ये महज संयोग नहीं है कि दस साल पहले से सत्ता पर काबिज हो कर बीजेपी संघ के एजेंडे को पूरा कर गुरुदक्षिणा देने की तैयारी कर रही है.
बीजेपी 2014 में भी अचानक ही सत्ता में नहीं आई. सन 2000 से यानि बीस बरस पहले से पूरी तैयारी शुरू हो चुकी थी. गुजरात राजनीतिक, सामाजिक बदलाव की प्रयोगशाला थी. मीडिया संबंधी प्रयोग भी सबसे पहले वहीं शुरू हुए थे. तब तथाकथित धर्मनिरपेक्ष बड़े पत्रकार मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से पंजा लड़ाने गांधी नगर जाते थे. मृदुभाषी व्यवहारकुशल मोदी तब जानबूझ कर अहमक नेता की छवि बना रहे थे. मोदी-बेशिंग टीवी पत्रकारिता का जोनर बन चुका था. वहीं स्थानीय मीडिया के नाक में नकेल डाल दी गई थी. राष्ट्रीय स्तर पर गुजरात की सरकार-विरोधी खबर पहुंच ही नही पाती थी. नकारात्मक प्रचार को रणनीति के तहत खूब हवा दी गई. दंगों के बहाने हिंदू-हृदय सम्राट बनाया गया तो फर्जी एनकॉउंटर को आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई से जोड़ कर पेश किया गया. आपदा को अवसर बनाने में महारत मोदी को यही से मिली थी.
बताया जाता है कि मोदी हमेशा कहते रहे हैं कि यदि देश की मीडिया को नथ दिया जाए तो यहां आराम से पचास साल तक शासन किया जा सकता है. अगर ऐसा कहते हैं तो गलत नहीं कहते हैं मोदी. वक्त की बात छोड़ भी दी जाए तो मीडिया को नथ कर तो मोदी ने दिखा ही दिया. अब खुद मीडिया हॉउसेज़ और बड़े-बड़े पत्रकार खुद ये रिश्ता बड़ी शिद्दत से निभा रहे हैं. आज एक राजीव त्यागी सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता की भेंट चढ़ा है तो दूसरा पत्रकार प्रशांत टंडन दंगे के लिए मुकदमें का शिकार हुआ है. तो परसों कारवान की महिला पत्रकार और उसकी टीम सड़क पर हमले का शिकार बनी है. इसी तरह जब कोरोना की वजह से लॉकडॉउन में सीएए-एनआरसी के खिलाफ आंदोलन मानवीय कारणों से स्थगित कर दिया गय़ा था, दिल्ली पुलिस चुपचाप युवा एक्टिविस्टों को गिरफ्तार कर रही थी और उनके दिल्ली के दंगों से रिश्ते जोड़ दिए गए थे.
राष्ट्रवाद की आड़ में सरकार के मुस्लिम विरोधी कदमों का जितना विरोध होता रहा, मीडिया मोदी-मंत्र का जाप करते हुए उतना ही मुखर हो कर विरोधियों को देशद्रोही साबित करता रहा. पत्रकारिता में तीस बरस से ज्यादा गुजारने के बाद पहली बार ये पता चला कि सत्ताविरोधी पत्रकारिता के लिए जिन वरिष्ठों को हम अपना आदर्श मानते रहे हैं, दरसल उनमें से ज्यादातर संघी भाईजी थे. अब उन्हें सत्ताविरोधी पत्रकारिता नहीं चाहिए और अब वे राष्ट्रनिर्माण में अहम भूमिका अदा कर रहे हैं और संघ के तथाकथित “परम वैभव” के लिए काम कर रहे हैं.
जाहिर है कि निर्भयाकांड औऱ आतंकवाद के खिलाफ यूपीए सरकार के निकम्मेपन, कांग्रेस के भ्रष्टाचार को लेकर अन्ना हज़ारे की गांधीवादी ब्रांडिंग का इस्तेमाल कर संघ परिवार दिल्ली के तख्त पर काबिज़ होने के लिए षड़यंत्र रच रहा था. और उसमें पहली सहभागिता मीडिया में काबिज स्वयंसेवकों की ही थी. शुद्ध पत्रकार भी सत्ताविरोधी पत्रकारिता कर रहे थे तो संघ प्रचारक पत्रकार अपने उद्येश्य में जुटे हुए थे. देश में भगवा लहर पैदा की गई. बीजेपी ने स्वदेशी का स्वांग रचा तो कांग्रेसी नेतृत्व को रोम से आयातित बताया जाने लगा. मोदी की लार्जर दैन लाइफ इमेज गढ़ी गई. हर मर्ज के लिए मोदी ज़रूरी बताया गया. बीजेपी का मकसद सिर्फ चुनाव जीतना नहीं रहा. वो खुद को देश की प्रमुख पार्टी के रूप में स्थापित करने और कांग्रेस को समाप्त करने की रणनीति पर काम कर रही है. इसके लिए भारतीय लोकतंत्र की सभी अहम संस्थाओं के शीर्ष पर स्वयंसेवक बिठाने या सहयोगियों की तलाश की गई. मीडिया, न्यायपालिका, कार्यपालिका और गैर-कांग्रेसी विपक्षी दल सभी जगह हमदर्द तलाश लिए गए हैं. सीएजी, चुनाव आयोग जैसी कई स्वायत्त संस्थाएं भी सरकार के इशारे पर काम कर रही हैं. वजह यही है कि आज भी कांग्रेस देश की राजनीति में अलग-थलग नजर आती है और उनके क्षत्रप विद्रोही तेवर दिखाने से बाज़ नहीं आ रहे.
इसमें कोई संदेह नहीं कि नरेंद्र मोदी ने अप्रत्याशित रूप से पॉलेटिकल मार्केटिंग और इलेक्शनियरिंग तकनीक का इस्तेमाल किया. जिसमें बहुत बड़े पैमाने पर पैसे की भूमिका थी. लेकिन मीडिया स्वयंसेवकों के महत्व को भी मोदी ने समझा और इन रिश्तों को एक पर्सनल टच दिया. लिहाज़ा मीडिया कांग्रेसी गठबंधन सरकार के खिलाफ मुखर हो गया. वहीं मीडिया हॉउसेज के मालिक भी भारी भरकम विज्ञापन मिलने से मुदित रहे. नरेंद्र मोदी उन नेताओं में से नहीं थे, जो चुनाव के बाद अपने कार्यकर्ताओं या पत्रकारों को भूल जाया करते हैं. मौके-बेमौके उन्हें चीन्हने-पहचानने-दुलराने और पुरुस्कृत करने में भी कोई कोताही नहीं बरती. वहीं कांग्रेस को हमेशा यही लगता रहा कि देश को अगर धर्मनिरपेक्षता औऱ लोकतंत्र चाहिए तो जनता उन्हीं को वोट देगी. लेकिन आरएसएस आजादी के बाद सत्तर साल से तय रणनीति पर काम करता रहा. राष्ट्रवादियों के नाम पर धर्मनिरपेक्ष विचार के पत्रकारों को भी पुचकारता रहा. और धीरे-धीरे उनकी धार कम कर दी. आनुषंगिक संगठन सिविल सेवा में भी स्वयंसेवकों की भर्ती के प्रशिक्षण केंद्र चलाते रहे. पत्रकारिता में भी स्वयंसेवकों का योगक्षेम वहन हमेशा किया गया. इसी वजह से आज ये हालात हैं कि मीडिया मर्सिनरीज़ राजीव त्यागी जैसे विपक्षी दलों के प्रवक्ताओं को उकसाने और मौत के दर तक पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती. हालात तो अब बहुत बदल गए हैं. ये सोचना अब लाजिम हो गया है कि देश को क्या वाकई अब लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की ज़रूरत है भी या नहीं. क्योंकि बहुसंख्यकवाद को लोकतंत्र मान लिया गया है तो हिंदुत्व को धर्मनिरपेक्षता का स्थानापन्न. छह वर्ष से जारी लगातार उकसावे की घटनाएं आखिरकार दूसरी सांप्रदायिकता को भी अपने खुर ज़मीन पर रगड़ने को मजबूर कर रही है. खासकर जब सत्तारूढ़ सांप्रदायिकता आंखें लाल-लाल कर दुम उठा कर हमले के लिए उद्यत हो.
लेकिन ये सब महज़ टीआरपी के लिए नहीं हो रहा. टीआरपी का खेल अलग है. बीएएआरसी यानि बार्क उद्योग जगत की बनाई संस्था ही है. वो राज्य व्यवस्था के दायरे से बाहर कैसे हो सकती है. पिछले कई सालों से सोशल मीडिया वारियर्स की भाडे की फौज बना कर मोदी समर्थक मीडिया की लोकप्रियता बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जा रहा है. उधर मीडिया हॉउस को मिल रहे विज्ञापन, मुर्गा लड़ाने वाले टीवी न्यूज़ फॉर्मेट्स, सत्ता पक्ष की तरफ से रक्तपिपासु एंकर्स, नूरा कुश्ती के महारती गेस्ट मिल कर जो समा बांधते हैं कि टीआरपी की क्या बिसात जो राहुल गांधी को मिल जाए. तिस पर राहुल गांधी को पप्पू साबित करने के लिए ली गई सुपाड़ी भी अकसर खुल कर नज़र आ जाती है. संघ दो आम चुनाव के दौरान हिंदू वोटबैंक के एकजुट होने से गदगद है. लेकिन वो इस ध्रुवीकरण को स्थाई बनाने के लिए मीडिया और सोशल मीडिया का ज़बर्दस्त इस्तेमाल कर रहा है. मीडिया में सक्रिय स्वयंसेवक पत्रकार हर दिन किसी एक मुद्दे को ध्रुवीकरण करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं. और हर गली में हिंदू-मुसलमान और हर घर में असली औऱ नकली हिंदू का झगड़ा खड़ा किया जा रहा है. आरएसएस इस ध्रुवीकरण से पचास वर्ष तक शासन करने की महत्वाकांक्षा पाले हुए है.
ऐसे में स्वतंत्र मीडिया खत्म होता जा रहा है. बहुत से टीवी चैनलों के मालिक बिल्डर, चिटफंड कंपनियां या ऐसी बिजनेस हॉउसेज़ थे, जिनको अपने काले कारनामें पर पर्दा डालना था, या फिर सत्ता पक्ष की दलाली कर पैसा कमाना था. लिहाज़ा नाम भर के चैनल तो ज़िंदा रहने की जुगत लगा रहे हैं, लेकिन बहुत से मंदी और फिर कोरोना के भेंट चढ़ गए. कोरोना प्रिंट मीडिया को भी ले डूबा. निजी विज्ञापनों की कमी से हर रोज़ एडीशन्स बंद हबो रहे हैं और पत्रकारों की नौकरियां खत्म हो रही हैं. जिस मीडिया ने बड़े बदलाव की उम्मीद पीएम मोदी से लगाई थी, वही धराशायी हो गया. अब सरकारी विज्ञापनों के सहारे मीडिया किस हद तक सत्ता-विरोधी पत्रकारिता करेगा. जनपक्षधर पत्रकारिता के लिए पहचाने जाने वाले एक-दो अखबारों को छोड़ सभी सरकार के इशारे पर खबरों को उछालने औऱ दबाने का काम कर रहे हैं. लेकिन मरते अखबारों और मीडिया की पीठ पर बैठे सक्रिय स्वयंसेवक संघ औऱ संगठन के काम में जी जान से जुटे हुए हैं.
मीडिया में कार्यरत स्वयंसेवक अब शताब्दी वर्ष की तैयारी में बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं. इनकी मनोकामना है कि देश को 2025 तक परम वैभव प्राप्त हो जाए. परम वैभव से आशय ये है कि संघ की विचारधारा के अनुसार भारत माता जिन आभूषणों से वंचित हैं, उन सभी से उसका अलंकरण किय़ा जाए. इन अलंकरणों में राम मंदिर, धारा 370, तीन तलाक जैसे कई उद्येश्य पूरे कर लिए गए हैं. अब काशी,मथुरा, समान कानून संहिता औऱ जनसंख्या कानून जैसे उद्येश्यों की प्राप्ति होना बाकी है. संघ सत्ता तक पहुंचने के साधनों की पवित्रता में विश्वास नहीं करता. इसीलिए सरकार के अधिनायकवाद से उसे कोई उज्र नहीं है, बल्कि वो स्वयं अघोषित तौर पर बहुसंख्य़क-अधिनायकवादी राजनीति का हामी रहा है. लेकिन बहुसंख्यकवाद में भी हिंदुओं में बहुसंख्यक दलित-आदिवासी और पिछड़े वर्ग का मनुवादी नज़रिए से ही मूल्यांकन किया जाता है. चीख-चीख कर आरक्षण जारी रखने का झूठ बोला जा रहा है, लेकिन सच्चाई ये है कि देश में इन वंचित वर्गों की बहुत बड़ी तादाद में नौकरियों में रिक्तियां पड़ी हुई हैं. संघ और बीजेपी की कथनी और करनी में हमेशा फर्क देखा जा सकता है. संघ सत्ता से दूरी की बात भी करता है तो स्वयं बीजेपी को नियंत्रित भी करता है. सत्ता मिलने के बाद स्वदेशी जैसे नारे का अर्थ अब बदल गया है. खुद संघ प्रमुख मोहन भागवत ने स्वदेशी की परिभाषा हाल में बदल दी है. यहां तक कि संघ की मुखौटेदार राजनीति ने अपने आदर्श माधव राव सदाशिव गोलवलकर की दिशा-निर्देशक पुस्तक बंच ऑफ थॉट से भी किनारा कर लिया है. भागवत का कहना है कि संघ उससे बहुत आगे आ चुका है. ज़ाहिर है कि उसे अब घोषित रूप से हिंदू राष्ट्र नहीं चाहिए. सही भी है. लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश के मुखौटे में ही अघोषित हिंदू राष्ट्र बन जाए तो हर्ज ही क्या है. लेकिन मोदी-समर्थक मीडिया इस उद्येश्य पूरा करने के लिए और जाने कितने राजीव त्यागियों की बलि लेगा, कहना मुश्किल है.