आशंकाओं और संभावनाओं के बीच नई शिक्षा नीति
नई शिक्षा नीति के मसौदे की खास-खास बातें केंद्र सरकार ने जारी कर दी हैं. वहीं नई शिक्षा नीति तैयार करने की कवायद 31 अक्टूबर 2015 को शुरू की गई थी. केंद्र सरकार ने शिक्षा नीति तय करने के लिए पूर्व कैबिनेट सचिव टी.एस.आर. सुब्रमण्यन की अध्यक्षता में पांच सदस्यों की कमेटी बनाई थी. सुब्रमण्यन कमेटी ने 27 मई, 2016 को अपनी रिपोर्ट सौंपी. इसके बाद तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान अनुसंधान संस्थान यानि इसरो के प्रमुख रहे वैज्ञानिक के कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में नौ सदस्यों की एक कमेटी बनाई, जिसे नई शिक्षा नीति का ड्राफ्ट तैयार करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई. 31 मई को कमेटी ने ठीक तीन साल में अपनी ड्राफ्ट रिपोर्ट मानव संसाधन मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक को सौंप दी. ड्राफ्ट पर दो लाख से ज्यादा सुझाव आए. इसके बाद 29 जुलाई 2020 को केंद्रीय कैबिनेट ने नई शिक्षा नीति के ड्रॉफ्ट को मंज़ूरी दे दी.
देश में 34 वर्ष बाद नई शिक्षा नीति का ड्राफ्ट तैयार होता है और उस ड्राफ्ट को संसद में पेश किए बगैर कैबिनेट से मंजूरी देने पर सवाल खड़े होते हैं. देश की सर्वोच्च पंचायत में इस रिपोर्ट को रखे बगैर मंजूरी देना संसद की अवहेलना के रूप में देखा जा रहा है. देश के सभी राजनीतिक दलों को अपने-अपने दृष्टिकोण से रिपोर्ट पर अपने विचार रखने का मौका दिए जाने की सरकार से अपेक्षा थी. लेकिन उन्हें मौका ना देने से संसदीय़ लोकतंत्र की मर्यादा को ठेस ज़रूर पहुंची है. एक सवाल ये भी है कि जो शिक्षा नीति नई पीढ़ी को लोकतंत्र, समता,समानता, न्याय की शिक्षा औऱ समरसता का भाव पैदा करने के लिए बनाई गई है, उसको मंजूरी देने की प्रक्रिया में ही लोकतंत्र की अवहेलना से छात्रों को क्या संदेश जाएगा. ऐसे में सरकार को सभी दलों को विश्वास में लेना चाहिए. खैर, अब भी सरकार के पास छात्रों में दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर राष्ट्रहित में सोचने की प्रेरणा देने का मौका है.
इसमें कोई संदेह नहीं कि देश को नई शिक्षा नीति की ज़रूरत थी. निस्संदेह शिक्षा नीति अपनी समग्रता में बहुत सकारात्मक है. इसमें तीन वर्ष के बच्चे के मानसिक विकास से लेकर उच्च शिक्षा तक के लिए एक स्पष्ट प्रारूप तैयार किया गया है. पूर्व- प्राथमिक शिक्षा को भी उतना ही महत्व दिया गया है, जितना उच्च शिक्षा और शोध आधारित संस्थाओं को. यहां तक कि आंगनवाड़ी की भी उपयोगिता को समझा गया है और आठवी कक्षा तक क्लास रूम से बाहर खेल-खेल में शिक्षा देने के तरीके पर जोर दिया गया है. दरसल अब तक भारी-भरकम पाठ्यक्रम और मोटी-मोटी पाठ्यपुस्तकों की वजह से छात्र पाठ को समझने के बजाय रटने में यकीन करते रहे हैं. ऐसे में नई नीति में तथ्य की समझ विकसित करने और परिचर्चा के जरिए विश्लेषण करने की क्षमता विकसित करने वाली शिक्षा प्रणाली बनाने का प्रयास दिखाई देता है. इसके लिए एक स्पष्ट पाठ्यक्रम विकसित करने पर ज़ोर दिया गया है. बच्चों को प्रभावी तरीके से पढ़ाने के लिए शिक्षकों की भी ज़रूरत है. यानि छात्रों के लिए नए सिरे से पाठ्यक्रम तैयार करने के साथ शिक्षकों का प्रशिक्षण भी आवश्यक है. वहीं पढ़ाने के तरीके भी बदलने की ज़रूरत महसूस की जा रही है. नई शिक्षा नीति वर्तमान परीक्षा प्रणाली के साथ-साथ पूरे के पूरे शिक्षा के नियामक तंत्र के पुनर्गठन की ज़रूरत महसूस कर रही है.
नई शिक्षा नीति की सबसे अलहदा बात ये है कि इसमें तीन वर्ष के शिशुओं के मानसिक विकास के लिए भी चिंतन किया गया है. तीन वर्ष के शिशुओं को भी शिक्षा के अधिकार कानून के दायरे में लाया गया है. अब नर्सरी को भी औपचारिक शिक्षा की श्रेणी में रखा जा रहा है. कमेटी का मानना है कि तीन वर्ष के शिशु मानस जल्दी सीखता है और आगे चल कर उनमें उसकी तार्किकता और वैज्ञानिक सोच विकसित करता है. बच्चों को शिक्षित करने के लिए दो स्तरीय पाठ्यक्रम बनाए जाएंगे जिनमें पहला तो तीन साल के बच्चे के मानसिक विकास के लिए होगा जो शिक्षकों और अभिभावकों के प्रशिक्षण के लिए होगा तो दूसरा तीन से आठ साल के बच्चों के लिए, यानि पांचवी तक के बच्चों के मानसिक औऱ शारीरिक विकास के लिए अलग पाठ्यक्रम तय किया जाएगा. ये पाठ्यक्रम बच्चों को खेल-खेल में सिखाने-पढ़ाने के लिए तैयार किया जाएगा. यानि आंगनवाड़ी से शुरू कर प्राथमिक स्तर तक की शिक्षा पद्धति और शिक्षकों की सोच में बदलाव लाने की पैरोकारी करती है नई शिक्षा नीति. लेकिन एक वर्ग की चिंता ये है कि तीन वर्ष के बच्चों की शिक्षा को भी शिक्षा के अधिकार के दायरे में ला कर आरटीई को हल्का करने की साजिश तो नहीं की जा रही है. क्योंकि इसके लिए नए सिरे से संसाधन जुटाने होंगे और ऐसे में वर्तमान व्यवस्था भी कमज़ोर पढ़ जाएगी. यहां विशेषज्ञों को संदेह है कि शिक्षा के अधिकार के दायरे को बढ़ा कर तीन वर्ष तक के बच्चों की प्री-प्रायमरी शिक्षा से लेकर माध्यमिक शिक्षा तक को शुमार करने में सरकार की मंशा साफ नहीं है. जानकारों का मानना है कि राइट टू एजुकेशन को सरकार निष्प्रभावी बनाने की कोशिश में है ताकि शिक्षा का निजीकरण किया जा सके.बहरहाल ये समय बताएगा कि सरकार कैसे नई नीति को अमल में लाती है.
नई शिक्षा नीति को कुछ विशेषज्ञ काफी क्रांतिकारी मान रहे हैं तो कुछ काफी किताबी. शिक्षा नीति की समस्याएं तो अलग हैं. वहीं नई नीति को लागू कर पाना भी अपने आप में बड़ी समस्या है
नई शिक्षा नीति में पांचवी कक्षा तक शिक्षा के माध्यम स्थानीय या मातृभाषा को रखने का फैसला किया गया है. कमेटी का मानना है कि इस आय़ु में बालक मातृभाषा में शिक्षा से बेहतर समझ विकसित होगी. आईडिया बुरा नहीं है. चीन से टक्कर लेने के ज़रूरी भी है. लेकिन समस्या इसके लागू होने की है. सरकार में दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति नहीं नज़र आती है, जिससे इस फैसले को निजी स्कूलों में लागू कराया जा सके. इसीलिए नई शिक्षा नीति के तहत पांचवी कक्षा तक “जहां तक संभव हो सके”, शिक्षा का माध्यम स्थानीय भाषा को बनाने का निर्णय लिया गया है. यानि निजी स्कूल तो “जहां तक संभव हो सके” की श्रेणी से बाहर होंगे, सो वो तो अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा देने के लिए स्वतंत्र होंगे, लेकिन सरकारी स्कूल शायद ही ये हिमाकत कर पाएं. यानि सरकारी स्कूल के छात्र अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने से महरूम रह जाएंगे. लेकिन सुविधासंपन्न वर्ग पब्लिक स्कूलों की शिक्षा का लुत्फ उठा सकेगा.यहां गंभीर सवाल उठ रहा है कि सामर्थ्यवान राजनीतिज्ञों से लेकर नौकरशाह, व्यवसायी, उद्योगपति यानि उच्च मध्यम वर्ग के लिए अपने बच्चों की निजी स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा पाने का द्वार सरकार ने नई शिक्षा नीति में भी खोल रखा है. लेकिन विडंबना ये है कि सामाजिक-आर्थिक रूप से विपन्न औऱ वंचित समाज के लिए अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दिलाना एक सपना ही रह जाएगा. सरकारी स्कूल पिछड़े और आरक्षित वर्गों के लिए रह जाएंगे तो निजी स्कूल संपन्न वर्ग के लिए. वहीं स्कूलों को शिक्षा संसाधनों को उलब्ध कराने के लिए एक निश्चितसीमा के भीतर अपनी फीस तय करने का अधिकार होगा. ज़ाहिर है कि इंडिया औऱ भारत के छात्रों के बीच एक खाई कम होने के बजाय औऱ गहरी हो जाएगी. जबकि आज के दौर में भूमंडलीकरण के कारण कोई भी अपने बच्चे को अंग्रेजी शिक्षा से वंचित नहीं रखना चाहता. ऐसे वंचित बच्चों के लिए विदेशी शिक्षा संस्थानों में प्रवेश में भी दिक्कत आएगी क्योंकि उन विश्वविद्यालयों में शिक्षण का माध्यम अंग्रेजी होना अनिवार्य होता है. अगर टॉफेल जैसे अंग्रेजी की परीक्षा की बात भी की जाए तो हिंदी माध्यम के छात्रों के लिए एक मानसिक रुकावट होगी. ऐसे में नई शिक्षा नीति को गरीब और वंचित वर्ग के लिए कोई बड़ा सपना नहीं है. सच्चाई यही है कि गरीब के हित के नाम पर तय की जा रही नीतियां ही उसे और गरीब बनाने वाले होती हैं. विकास का यही इतिहास भी है.
यही नहीं,नई नीति के तहत त्रिभाषा फार्मूला भी लागू करने का फैसला किया गया है. इस फार्मूले के तहत हिंदी भाषी क्षेत्र में हिंदी औऱ अंग्रेजी के अलावा एक दक्षिण भारतीय भाषा सिखाए जाने औऱ दक्षिण में अंग्रेजी के साथ हिंदी की शिक्षा की हिमायत की गई है. ये सिफारिश निस्संदेह अच्छी है लेकिन कितनी व्यावहारिक साबित होगी, ये कहना मुश्किल है. क्योंकि दक्षिण भारत में इसे लेकर राजनीति तेज़ हो गई है. तमिलनाडु के सत्तारूढ़ दल एआईएडीएमके ने अभी से ही इसे लागू ना करने और विरोध का फैसला कर डाला है. कमेटी ने भी उत्तर भारत में त्रिभाषा फार्मूले का सख्ती से लागू कराने का मशविरा दिया है.
भाषा के मामले में सरकार के अपने पूर्वाग्रह भी छात्रों को भुगतने पड़ सकते हैं. मसलन चीनी भाषा को विदेशी भाषा की श्रेणी से हटा दिया गया है. ऐसे सस्ती लोकप्रियता बटोरने के लिए किया गया है. क्योंकि बीसीसीआई चीन मोबाइल वीवो से स्पॉंसरशिप लेता है तो सरकार को कोई ऐतराज़ नहीं होता या फिर हम पूरे लॉकडॉउन पीरिएड में पीपीई किट चीन से मंगाते रहे हैं, लेकिन चीन भाषा से बैर बहुत हास्यास्पद है. क्योंकि अगर चीन शत्रु देश की श्रेणी रख दिया गया है तो चीनी भाषा सीखना सच्चा देश हित होगा ताकि हम चीनी सामाजिक,राजनीतिक औऱ आर्थिक मामलों की समझ उनकी ही भाषा में पैदा कर सकें. लेकिन ये कदम उग्र राष्ट्रवाद को प्रोत्साहन देने वाले कदम के रूप में देखा जा रहा है. बंदर के हाथ में एक उस्तरे की तरह होता है जो किसे नुकसान पहुंचाएगा, कहा नहीं जा सकता.
यही नहीं, इसमें साथ साथ माध्यमिक से लेकर हायर सेकंडरी तक अनिवार्य रूप से एक व्यावसायिक शिक्षा के पाठ्यक्रम को शामिल करना भी व्यवसायोन्मुखी शिक्षा और कौशल विकास की दिशा में अहम कदम है. यहां जानकारों का मानना है कि नई शिक्षा नीति से अपेक्षा थी कि वो वोकेशनल शिक्षा को भी औपचारिक शिक्षा का दर्जा देगी. वोकेशनल शिक्षा में छात्र इसलिए दिलचस्पी नहीं लेते क्योंकि इससे वो किसी भी औपचारिक पाठ्यक्रम में दाखिला नहीं ले सकते हैं.
एक अहम बात ये है कि नई नीति लागू करने के लिए केंद्र और राज्य के बीच जिम्मेदारी को लेकर स्पष्टता नहीं है. अव्वल तो शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है. यानि केंद्र और राज्य दोनों कोशिक्षा संबंधी नीति बनाने और लागू करने के बराबर के अधिकार हैं. लेकिन राज्य नई नीति बनाने की प्रक्रिया में शामिल होने से महरूम रहे और उन पर नई नीति पर अमल का ज़िम्मा है.
संसाधनों की कमी को देखते हुए एक ही शैक्षिक परिसर में आंगनवाड़ी से लेकर हायर सेकंडरी तक स्कूल और प्रौढ़ शिक्षा केंद्र खोलने की सलाह दी गई है. सरकार के पास संसाधनों की कमी जगजाहिर है. एक ही जगह शैक्षिक कॉप्लेक्स के लिए राशि की उपलब्धता, निर्माण, आवश्यक स्टॉफ, आपसी तालमेल और केंद्र और राज्य सरकार की भूमिका तय होना बाकी है. पहली बात तो इंफ्रास्ट्रक्चर की ही है. उसके बाद ये सभी इकाईयां एक समग्र संकुल के रूप में किस प्रकार काम कर सकेंगी और आपसी समन्वय बना रहेगा, ये संदेहास्पद है.
नई शिक्षा नीति लागू करने में एक सबसे बड़ी समस्या है, शिक्षित और प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव.. पहली बात तो ये जग जाहिर है कि देश भर में ज़रूरत से आधे ही शिक्षकों की भर्तियां हुई हैं. उसमें भी निकाली गई रिक्तियों को पूरी तरह नहीं भरा जाता. इन रिक्तियों में भर्ती शिक्षकों की हालत तो देश की शिक्षा व्यवस्था की तरह दयनीय है. शिक्षकों के एक बड़े तबके के लिए सरकारी वेतन पाते रहने और मज़े में जीवन-यापन का जरिया बना हुआ है शिक्षण का क्षेत्र. देश में वर्तमान में 80 लाख से ज्यादा शिक्षक हैं. लेकिन उनकी प्रोफेशनल दक्षता बहुत निम्नस्तरीय है. इन शिक्षकों की सोच और समझ में बदलाव के साथ-साथ इनके शिक्षण के प्रशिक्षण की भी नए सिरे से ज़रूरत है.
नई नीति शिक्षण शैली में व्यापक बदलाव की भी हिमायत करती है. जो लाजिमी भी है. लेकिन क्या नई शिक्षा नीति लागू करने के लिए जरूरी तादाद में शिक्षकों की योग्यता के आधार पर भर्तियां सरकार करने की स्थिति में है. और क्या देश भर के शैक्षिक वर्ग को नई शिक्षा पद्धति के अनुरूप ढाल पाना संभव होगा. क्या हम आंगनवाड़ी कर्मचारियों में शिशुओं को शिक्षित करने लायक बौद्धिक क्षमता विकसित कर पाएगे. और तो और नई नीति के अनुरूप पाठ्यक्रम और शिक्षकों के प्रशिक्षण सामग्री तैयार करने में भी काफी समय लगने की संभावना है.
शिक्षा का पाठ्यक्रम भी बच्चों की आयु वर्ग के मद्देनज़र तैयार करने की सिफारिश की गई है. और इसी प्रकार से प्राथमिक, माध्यमिक और हायर सेकंडरी स्नातक तक की शिक्षा को 5+3+3+4 हिस्सों में बांटा गया है. हायर सेकंडरी के उपरांत चार वर्ष के ग्रेजुएशन में हर वर्ष के पाठ्यक्रम को एक स्वायत्त रूप रखा गया है. यानि छात्र जिस वर्ष तक अध्य़यन करेगा, उसे उस वर्ष तक की शिक्षा का डिप्लोमा या डिग्री उलब्ध कराई जाएगी. साथ ही वो सके आगे से कभी भी किसी भी संस्था में प्रवेश भी ले सकेगा. छात्रों को एक मेज़र सब्जेक्ट के अलावा एक माइनर विषय लेने की भी छूट होगी और वो विषय किसी अन्य संकाय से छात्र की पसंद का विषय हो सकता है. इसमें व्यवसायिक पाठ्यक्रम के विषय भी शामिल होंगे. कंप्यूटर कोडिंग, आर्टीफिशियल इंटेलीजेंस जैसे नए विषय भी जोड़े जाएंगे. छात्रों के लिए ये एक दिलचस्प खबर है. नई शिक्षा नीति ने पाठ्यक्रम के अलावा क्लासरूम में छात्रों की शिक्षा से लेकर शिक्षकों के प्रशिक्षण के साथ दूर-दराज के इलाकों में शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए आधुनिक टेक्नॉलॉजी का इस्तेमाल करने की हिमायत की है. नई शिक्षा नीति में छात्रों के लिए खास दिलचस्पी वाली कुछ सिफारिशें की गई है, पहली तो चार वर्ष के ग्रेजुएशन में जिस स्तर पर चाहें छात्र अपनी पढाई रोक सकते हैं और कुछ समय बाद उत्तीर्ण किए वर्ष के आधार पर दोबारा आगे के वर्ष की पढ़ाई पूरी कर सकते हैं या किसी अन्य विषय में दाखिला ले सकते हैं. पहला वर्ष उत्तीर्ण करने पर सर्टिफिकेट और अगले वर्ष की पढ़ाई के लिए डिप्लोमा, तीसरे वर्ष के लिए ग्रेजुएशन और चौथे वर्ष को उत्तीर्ण करने पर ऑवर्स की डिग्री देने की व्यवस्था की गई है. ये तरीका दुनिया की दूसरी यूनिवर्सिटी में अमल में लाया जाता है.
नई शिक्षा नीति परीक्षा के तरीके बदलने पर भी ज़ोर देती है. तथ्यों की जानकारी के परीक्षण के बजाय विश्लेषणात्मक परीक्षा शैली अपनाई जाएगी. टर्म पेपर्स, सेमिनार पेपर्स, मिड टर्म परीक्षाओं के जरिए छात्र के लगातार शिक्षण पर आधारित होगी नई शिक्षा नीति.
नई नीति ग्रामीण इलाकों में बिजली की अनुपलब्धता से छात्रों की कठिनाई को भी रेखांकित करती है और शिक्षा के लिए बिजली की उपलब्धता को अनिवार्य बनाने के लिए सरकार को चेताया है.
शिक्षको के बाद सबसे बड़ा सवाल देश भर में सिर्फ और सिर्फ मल्टी डिसिप्लिनरी कॉलेज बनाने की सिफारिश को लेकर खड़ा हो रहा है. इतना बड़ा सरंजाम कैसे जुटाया जाएगा. क्या सरकार निजी क्षेत्र के हाथों में उच्च शिक्षा पूरी तरह सौंपने का मन बना चुकी है. देश के कई सिंगल स्ट्रीम संस्थान दुनिया भर में अपनी उत्कृष्टता के लिए पहचाने जाते हैं. लेकिन इन्हें खत्म करना कहा तक उचित है. ऐसे में आईआईएम में मेडिकल की पढ़ाई और आईआईटी में सोशल साइंस की शिक्षा देना कितना तर्क संगत होगा.
जहां तक उच्च शिक्षा का सवाल है, देश में उच्च शिक्षा हासिल करने वाले छात्र 25 फीसदी ही हैं. इसे कुल नामांकन अनुपात यानि ग्रॉस एनरोलमेंट रेश्यो या जीईआर कहा जाता है. ये 2017 में 25.8 फीसदी था. सरकार 2035 तक इसे बढ़ा कर पचास फीसदी तक लाना चाहती है. उच्च शिक्षा के लिए तीन तरह के विश्वविद्यालयों की श्रेणी बनाई गई है. पहली रिसर्च यूनिवर्सिटीज़, जो छात्र किसी विषय पर शोध करना चाहते हैं. यानि स्नातक में चौथे वर्ष तक की पढ़ाई यानि ऑनर्स करने पर न विश्वविद्यालयों में दाखिला मिलेगा. दूसरी तरह की यूनिवर्सिटीज़ हैं टीचिंग यूनिवर्सिटीज़ यानि जहां शिक्षा जगत में जाने के इच्छुक छात्रों को दाखिला लेना होगा. तीसरे तरीके के विश्वविद्यालय हैं जो अंडरग्रेजुएट छात्रों के लिए होंगे. यानि सामान्य रूप से शिक्षा के लिए. ये तीन तरीके का कैटेगरॉइज़ेशन छात्रों को बड़ा सपना देखने से रोकता है. हालांकि नई शिक्षा नीति का पूरा शैक्षणणिक ढांचा पाश्चात्य देशों से लिया गया है. लेकिन इस व्यवस्था पर किस तरह अमल होगा, ये बहुत महत्वपूर्ण होगा. हालांकि नई नीति में दावा किया गया है कि विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को प्रशासनिक, अकादमिक और आर्थिक रूप से पर्याप्त स्वायत्तता दी जाएगी. कॉलेजों को ग्रेडेड ऑटोनॉमी देने की बात कही गई है. यानि उन्हें भी आने वाले वर्षों में विश्वविद्यालयों की भांति स्वयं भी डिग्री देने का अधिकार मिल जाएगा. यही नहीं विदेशी विश्वविद्यालयों को भी देश में अपने कैंपस खोलने की अनुमति दी जाएगी. ये भी साफ कर दिया गया है कि इन संस्थानों को एक कैप के तहत अपनी फीस तय करने का अधिकार दिया जाएगा.
ऐसे में शिक्षा जिस तरह खर्चीली होने वाली है, उसकी कल्पना मुश्किल है. जानकारों का मानना है कि नई नीति अनुदान आधारित शिक्षा व्यवस्था से ऋण पर आधारित शिक्षा प्रणाली की तरफ ले जाएगी. यहां स्वायत्तता की आड़ में निजीकरण की तैयारी की साफ झलक दिखाई दे रही हैं. अगर निजीकरण की मंशा नहीं है तो शिक्षा के लिए फंड के प्रावधान को ले कर सरकार ने कोई स्पष्ट घोषणा नहीं की है.
अब बात शिक्षा संस्थानों के नियंत्रण की. नई शिक्षा नीति ने वर्तमान नियामक प्राधिकरणों को समाप्त करने या निष्प्रभावी कर एक नए आयोग यानि राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के गठन का मशविरा दिया है. ये राष्ट्रीय शिक्षा आयोग सीधे प्रधानमंत्री के मातहत होगा. कहने को तो पूरा शिक्षा तंत्र शिक्षा मंत्रालय के तहत होगा. मानव साधन मंत्रालय के बजाय शिक्षा मंत्रालय नाम देने का प्रावधान भी नई नीति के तहत किया गया है. लेकिन यह व्यवस्था कहीं ना कहीं केंद्रीकरण की ओर इशारा कर रही है. राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के तहत ही राष्ट्रीय उच्च शिक्षा नियामक प्राधिकरण यानि एनएचआरए की स्थापना की जाएगी, जिसके तहत यूजीसी,एनएएसी य़ानि नेशनल एसेसमेंट एंड एक्रेडिटेशन कॉउंसिल, एआईसीटीई,बार कॉउंसिल, काम करेंगी. हालांकि एक केंद्रीकृत कमांड की आवश्यकता है लेकिन इसकी स्थापना के पीछे सरकार की नीयत को लेकर संदेह पैदा हो रहे हैं. प्रधानमंत्री की सीधी निगहबानी एक बड़ी बात मानी जा रही है, लेकिन वहीं पूरे शिक्षा तंत्र के नियमित तौर पर प्रभावित होने की आशंका भी जताई जा रही है.
आशंका की वजह भी हैं. जिस तरीके से पिछले छह साल से जेएनयू, दिल्ली विश्वविद्यालय, जामिया मीलिया इस्लामिया, अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी, जाधवपुर यूनिवर्सिटी के साथ सरकार का बर्ताव रहा, उसे देखते हुए विकेंद्रीकरण की आड़ में नियंत्रण की कोशिश समझी जा रही है. छात्रों औऱ शिक्षा जगत ने ये भी महसूस किया कि केंद्र सरकार ने रिसर्च के लिए दिए जाने वाले अनुदान में भी भी पिछले छह सालों में भारी कटौती कर दी है, ऐसे में रिसर्च यूनिवर्सिटीज़ के प्रति सरकार का सहानुभूतिपूर्ण रवय्या रहने की संभावना नज़र नहीं आती. कस्तूरीरंगन कमेट ने अपने ड्राफ्ट में इस बात पर ज़ोर दिया है कि देश में रिसर्च औऱ इनोवेशन के क्षेत्र में सरकार ने 2008 में 0.84 फीसदी के अनुदान को घटा कर 2014 में 0.69 कर दिया गया. लेकिन अब नई नीति के अनुसार सरकार 20 हज़ार करोड़ यानि कुल जीडीपी का 0.1 फीसदी राशि से नेशनल रिसर्च फॉउंडेशन की स्थापना की जाएगी. ये फॉउंडेशन प्राकृतिक विज्ञान, तकनीक, समाज विज्ञान, मानविकी और कला के क्षेत्र में शोध के लिए अनुदान उपलब्ध कराएगा. यहां ये बताना लाजिमी होगा कि ड्राफ्ट कमेटी ने इस बात का भी जिक्र किया है कि 2017-18 में शिक्षा में सरकार ने सिर्फ 2.7 फीसदी खर्च किया है जबकि सरकार 6 फीसदी खर्च का दावा करती रही है. दरसल शिक्षा के क्षेत्र में जीडीपी का दस फीसदी खर्च करने की ज़रूरत है. नई शिक्षा नीति के लिए कमेटी ने सरकार से अगले पांच साल तक शिक्षा पर खर्च बढ़ा कर बीस फीसदी करने की ज़रूरत बताई है. लेकिन सच्चाई ये है कि शिक्षा और स्वास्थ्य कभी भी राजनीतिक दलों की प्राथमिकता में नहीं रहे. तकलीफ की बात ये है कि सरकार असिलयत में 6 फीसदी के बजा जीडीपी का 3 फीसदी ही शिक्षा पर खर्च करती है. उसे किसी तरह की बाध्यता नहीं है. ऐसे में ज़रूरत तो सरकार को जीडीपी का एक निश्चित प्रतिशत शिक्षा के लिए आवंटित करने वाले बाध्यकारी प्रावधान लाने की है.
दरसल शिक्षा नीति को तत्कालीन सरकारों ने जुमले की तरह इस्तेमाल किया है. हैरानी की बात ये है कि शिक्षा के ढांचे में इतने व्यापक और आमूल-चूल बदलाव लाने के लिए फंड कहां से आएगा, इसका नई शिक्षा नीति में साफ तौर पर जिक्र नही है. यहां ये कहना ज़रूरी होगा कि शिक्षा के लिए फंड्स की उपलब्धता और खर्च को जब तक कानूनी रूप नहीं दिया जाएगा और सरकार बाध्य नहीं होगी, तब तक कोई भी शिक्षा नीति पर ठोस अमल नहीं हो पाएगा.
आज कोरोना के दंश झेल रहे देश में ना तो चिकित्सा व्यवस्था मुकम्मल है ना ही शिक्षा व्यवस्था. दोनों व्यवस्थाएं निजी और सरकारी लूट का शिकार हैं. ऐसे में कितनी भी सदाशयता से नई शिक्षा नीति बनी गई हो, लेकिन उसमें पीपीपी के जरिए निजी क्षेत्र को व्यवसायिक लाभ कमाने की संभावना बनी रहती है. वहीं वंचित को और प्रवंचित करने की आशंका नज़र आती है
अब आखिरी और अहम सवाल जो जुड़ा है पाठ्यक्रम से. नई शिक्षा नीति के आलोचकों का मानना है कि इसके जरिए सरकार राष्ट्रीय स्वयं सेवक के एजेंडे को लागू कर रही है. संभव भी है, लेकिन फिलहाल जब तक नया पाठ्यक्रम बन कर तैयार नहीं होता, पूरी शिक्षा नीति को खारिज करना तर्कसंगत नहीं होगा. मात्र आशंका से की शिक्षाविदों की मदद से तैयार किए गए इस नई शिक्षा नीति का मसौदा ना सही पूरी तरह लेकिन पहले से तो कुछ कदम तो ले जाएगा अगली पीढ़ी को. जहां तक शिक्षा नीति के राजनीतिक दुरुपयोग की बात तो वो एक राजनीतिक लड़ाई है जिसे राजनीतिक दलों को लड़ना पड़ेगा.