कृषि अवसंरचना कोष: आत्मनिर्भरता के लिए कृषि को उद्योग बनाने की तैयारी
-अंशुमान त्रिपाठी
कहां से लाएगी सरकार कृषि के लिए एक लाख करोड़ रुपए !!
कौन है इस निवेश का असल हकदार, किसे मिलेगा फायदा !!
क्या किसान अपने ही खेत में बिजूका बन कर रह जाएगा !!
कृषि सुधार के नाम पर पूरी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को खत्म करने की साज़िश !!
क्या खेती बन जाएगी उद्योग औऱ किसान अपने ही खेत का मजदूर !!
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मन की बात नामके अपने कार्यक्रम में खरीफ की बंपर बुआई के लिए किसानों को बधाई दी है. उन्होंने अच्छी फसल होने के लिए भी किसानों की प्रशंसा की है. उनकी मनलुभावन बातों का जनमानस पर खासा असर पड़ता है. बरसों से किसान भोग रहा है कि जहां उसको एमएसपी पर फसल का खरीदार नहीं मिलता. वहीं, सरकार भी अच्छा उत्पादन होने के बावजूद अनाज के आयात से बाज नहीं आती. लेकिन पीएम मोदी की बात करने की कला उसे लुभा जाती है. पीएम मोदी अब खुले तौर पर खेती को उद्योग में बदलने की बात कह रहे हैं. हाल में छात्रों को संबोधित करते हुए पीएम नरेंद्र मोदी ने कहा कि आत्मनिर्भरता का लक्ष्य किसान को उत्पादक से उद्यमी बनाने का भी है. अगर प्रधानमंत्री के बयान की रोशनी में सरकार के लिए गए हालिया फैसलों को देखा जाए तो कृषि विकास के सरकारी प्रयासों की हकीकत सामने आज जाती है.
कोरोना महामारी के बाद केंद्र सरकार सभी को आत्मनिर्भरता का मंत्र दे रही है. जहां-जहां सरकार पर निर्भरता हैं वहां आत्मनिर्भरता का संदेश दिया गया है. यानि अब सरकार से उम्मीद मत रखिए, अब खुद देख लीजिए, समझ लीजिए. लेकिन आज भी देश की सत्तर फीसदी आबादी ग्रामीण भारत में रहती है और वह वोट देती है. इसलिए कृषि क्षेत्र के लिए बड़ी घोषणाएं ज़रूरी हैं. इनमें से है कृषि क्षेत्र के बुनियादी ढांचे के विकास के लिए एक लाख करोड़ रुपए की राशि का आवंटन. लेकिन समझने की बात ये है कि ये राशि पारंपरिक कृषकों और ग्रामीण समाज के लिए आवंटित की जा रही है या कृषि क्षेत्र में कब्ज़े के लिए उतावले पूंजीपतियों के लिए लाल कालीन बिछाने का संरज़ाम है.
कृषि क्षेत्र की सच्चाई किसी से छिपी नहीं है. खरीफ की फसल के लिए किसान बीज और खाद के लिए परेशान है.पैसा हो तो वो ब्लैकमार्केट से खरीदना मंजूर कर लेता है. लेकिन कोरोना महामारी ने उसके लिए नकदी की समस्या खड़ी कर दी है. बैंकों का मुंह जोहने से कोई फायदा नहीं. वो पहले से ही मुंह घुमाए बैठे हैं. उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में कोरोना के बढ़ते मामले और बढ़ती मृत्युदर के बीच कई-कई घंटे कतार में लग कर किसान धक्के खा रहा है. और उसके समने से ट्रकों यूरिया की कालाबाज़ारी जारी है. खुद विक्रेता किसी के नाम कई टन यूरिया सीधे खरीद लेता है किस-किस को शिकाय़त करे, कहां जाएं. लेकिन भोली जनता जानती है कि इन मुसीबतों से मोदीजी को क्या लेना. क्या-क्या करें मोदीजी.
केंद्र सरकार को किसान की इतनी फिक्र नहीं है. उसने प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि की छठी किश्त जारी कर दी है. करीब 8.55 करोड़ किसानों के खाते में 17100 करोड़ रुपए की राशि सीधे पहुंचा दी गई है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जानते हैं कि ग्रामीण वोटर के लिए मूल से सूद ज्यादा प्यारा होता है और ये दो हजार रुपए की अनुदान राशि पिछले आम चुनाव के वक्त से ही बहुत फायदेमंद साबित हो चुकी है.
पिछले छह वर्षों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता भले ही कम नहीं हुई है. क्योंकि उनकी बातें बुजुर्ग किसान की सलाह की तरह लगती हैं. उन्होंनें किसानों की आय़ 2022 तक दोगुना करने के अपने लोकलुभावन वादा किया. छह साल होने को आए, दोगुना तो क्य किसान के लिए लागत निकालना दूभर होता जा रहा है. ऐसे में उस वादे से बड़े दावे की ज़रूरत थी. सो, सरकार देश भर में कृषि इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने के लिए केंद्र सरकार एक लाख करोड़ रुपए की योजना ले कर आई है. ये एक लाख करोड़ रुपए का प्रावधान कोविड-2019 के सामाजिक-आर्थिक असर दूर करने के लिए केंद्र के बीस लाख करोड़ के राहत पैकेज का हिस्सा है. जानकार इसे सरकार की गंभीर औऱ सदाशय प्रयास के रूप में नहीं देख रहे हैं. हाल ही में भारतीय रिज़र्व बैंक ने इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र के लिए धन आवंटन से साफ इंकार कर दिया था. उसके बाद प्रधानमंत्री मोदी की इस घोषणा की सच्चाई क्या है. ये समझने की कोशिश की जा रही है. कुछ लोग सरकार की मंशा पर सवाल कर रहे हैं. इन लोगों का मानना है कि केंद्र सरकार अब किसान को मजदूर बनाने और बड़ी-बड़ी पार-राष्ट्रीय कंपनियों की गुलाम बनाने के लिए कृषि क्षेत्र को खोलने की तैयारी कर रही है. और ये एक लाख करोड़ की धन राशि किसान के हित से ज्यादा इन पूंजीपतियों के व्यापार के अवसर बढ़ाने के लिए कृषि इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने के नाम पर आवंटित की जा रही है.
सबसे पहले एक लाख करोड़ रुपए के कृषि अवसंरचना कोष यानि इंफ्रास्ट्रक्चर फंड को लेकर खड़े हो रहे सवालों पर बात करें. क्या सरकार सचमुच इस राशि को कृषि क्षेत्र की मजबूती के लिए आवंटित कर रही हैं, जब इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र के लिए बजटीय प्रावधान से रिज़र्व बैंक ने साफ इंकार कर दिया है तो इसके लिए पैसा कहां से आएगा कहां से. रिज़्व बैंक बाज़ार से पैसा उठाने की सलाह दे रही है लेकिन दूसरी तरफ 12 राष्ट्रीयकृत बैंकों में से 11 बैंक प्रधानमंत्री मोदी की इस पहल पर रज़ामंदी दे चुके हैं. लेकिन भारी एनपीए ने बैंकों की जिस तरह कमर तोड़ दी है. तीस फीसदी से ज्यादा कर्जदार भुगतान से मुंह मोड़ चुके हैं. कुछ सरकारी बैंकों में तो सत्तर फीसदी से ज्यादा किसानों ने मोरेटोरियम के तहत किश्त अदायगी से छूट ली है. बैंकों का कृषि औऱ उससे जुड़े हुए ग्रामीण क्षेत्र में 22 लाख करोड़ रुपए बकाया है. ऐसे में तीन और सार्वजनिक बैंकों के निजीकरण की तैयारी भी चल रही है. ग्लोबल रेटिंग एजेंसियां बैंकों की बदहाली पर लगातार चेतावनी दे रही हैं. इन हालात को देखते हुए माना जा रहा है कि ये घोषणा शिगूफेबाज़ी से ज्यादा कुछ नहीं. बल्कि कोविड से निपटने के बीस लाख करोड़ के पैकेज के ऐलान की तरह ये भी हवा-हवाई मामला है.
यहां ये भी देखना होगा कि कृषि क्षेत्र के लिए आवंटित होने वाली राशि का अस्सी फीसदी तक तो कैश ट्रांसफर और फसल बीमा योजना के इंश्योरेंस प्रीमियम वगैरह पर खर्च हो जाता है. बाकी पैसा दूसरे ज़रूरी गतचिविधियों में इस्तेमाल होता है. अचानक सरकार का हृदय परिवर्तन समझना मुश्किल जान पड़ता है. जब से मोदी सरकार आई है, कैश ट्रांसफर औऱ इंश्य़ोरेंस वगैरह की मद में होने वाला खर्च 2014 के बाद 28 फीसदी से बढ़ कर 2019-20 में 82 फीसदी हो गया है. ज़ाहिर है कि किसान की तकलीफ हमेशा के लिए दूर करने के बजाय उसे बीच बीच में मरहम लगाया जाता है. वहीं फसल बीमा योजना से किसान से ज्यादा बीमा कंपनियां मुनाफा बना रही हैं.
अगर मान भी लिया जाए कि सरकार की मंशा साफ है और वो कृषि अवसंरचना विकास के लिए येन केन प्रकारेण ये धनराशि आवंटित कर रही है. तो ज़ाहिर है कि कर्ज के गहरे दलदल में फंसे किसानों की मदद के बजाय सरकार का इरादा निजी क्षेत्र के लिए कृषि के दरवाज़े खोलने का है. संसद में विधेयक लाए बगैर अध्यादेशों के जरिए लाए गए ये बदलाव इस ओर इशारा भी करते हैं. संसद में विधेयक लाने से सरकार को सवाल-जवाब का सामना करना पड़ेगा.
यहां एक दिलचस्प बात ये भी है कि ये राशि अगले दस साल तक दी जाएगी. इस साल दस हज़ार करोड़ फिर अगले तीन साल तक यानि आम चुनाव आने तक तीस-तीस हज़ार करोड़ रुपए बांटे जाएंगे. वैसे भी हर साल 8 हज़ार करोड़ रुपए कृषि क्षेत्र में बांटे जाते रहे हैं. ये महज दो हज़ार करोड़ का इज़ाफा किया जा रहा है. चुनावी सालों में भी किसान से ज्यादा फायदा निजी क्षेत्र के एग्रीप्लेयर्स को मिलने वाला है.
आईए देखते हैं कौन हैं ये नए एग्रीप्लेयर्स. ये हैं निजी क्षेत्र की कंपनिया, नए स्टार्ट अप्स, इनोवेशन औऱ टेक्नॉलाजी कंपनियां, बड़े किसान समूह, पैक्स, और मल्टीनेशनल कंपनियां होंगी जिन्हें सरकार के इस एग्री इंफ्रा फंड से निजी क्षेत्र की कंपनियों से लेकर बड़े किसान समूहों को वेयरहॉउस, कोल्ड स्टोरेज, ई-मार्केटिंग,कलेक्शन सेंटर,फूड प्रोसेसिंग यूनिट लगाने के लिए ऋण उपलब्ध कराया जाएगा. ये कंपनियां आढ़तियों और बिचोलियों को किनारे कर मंडी जाए बगैर किसान से सीधे घर बैठे अनाज खरीदेंगी और उसकी ज़मीन पर अपनी मर्जी के मुताबिक खेती भी करेंगी. किसान को उसका मेहनताना मिल जाया करेगा. जी हां, कृषि क्षेत्र के लिए लाए गए तीन अध्यादेश यही बताते हैं.
सरकार को इन बड़ी कंपनियों से बड़े निवेश की उम्मीद है तो सत्तारूढ़ पार्टी को बड़े चंदे की उम्मीद. कोरोना महामारी के दौर में सरकार के पास ना तो निवेश है ना ही राजनीतिक खर्च के लिए पैसा. ऐसे में एक लाख करोड़ रुपए के निवेश के नाम पर किसान को ठंडा रखने और उसके परंपरागत खेती-किसानी की जगह कृषि को उद्योग में बदलने की तैयारी लगभग पूरी हो चुकी है. और जब तक सरकार खेती के बुनियादी ढांचे में फेरबदल कर इसे पूंजीपतियों के निवेश के लायक नहीं बना देती, तब तक कौन अपना पैसा फंसाएगा. इसलिए देश के भोले किसानों को भरमाने के लिए नए शिगूफों का सहारा लिया जा रहा है. एक लाख करोड़ रुपए के शिगूफे के साथ गरीब किसानों को अब इंडस्ट्रियलिस्ट बनाने का ख्वाब दिखाया जा रहा है.
मज़े की बात ये है कि किसानों को कंगाल बना कर खेतों से बेदखल करने की योजनाओं को कृषि क्षेत्र के बड़े नामों का भी सहारा लिया जा रहा है. सरकार दावा कर रही है कि वो कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन की सिफारिशों को लागू कर रही है. जबकि सरकार की मंशा कृषि को उद्योग बना कर निजी क्षेत्र के हवाले करने की ज्यादा नज़र आ रही है. देश की जनता मोदी का चेहरा देख कर हर बार जहर पीने को तैयार हो जाती है. ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी और सरकार को दायित्व बनता है कि अब बहुत हो चुका, किसान के साथ अब और छल नहीं होना चाहिए. ज़रूरतमंद किसान के पास उसके हक का पैसा पहुंचना चाहिए. क्योंकि किसान हाड़ का पींजर बन कर भी कभी बाढ़ तो कभी सुखाड़ सहते हुए फसल की लागत ना मिलने पर भी देश के लिए अन्न उगाता है.