search
  • एक औऱ बंटवारा,इंडिया और भारत में बढ़ी दूरियां,मजदूर चला अपने गांव - लेख- अंशुमान त्रिपाठी
  • May 14, 2020
  •                                                         एक और बंटवारे का दर्द-

    -अंशुमान त्रिपाठी

    इंडिया और भारत में बढ़ी दूरियां...

    मजदूर अब शहर लौटने को तैयार नहीं...

    व्यवस्था की संवेदनहीनता से टूटा भरोसा....

    19 47 के बाद एक भार फिर बंट रहा है देश. देश दोबारा बंटवारे के दौर से गुजर रहा है. इंडिया को अपने हाथों से रचने-गढ़ने वाले भारत के गांव वापिस लौटने लगे हैं. शहर सूने होते जा रहे हैं. यही है आज का इंडिया. शहर गांवों का पेट भरने को तैयार नहीं, तो गांव का भरोसा भी शहर से उठ चला है. गांव से आए गरीब मजदूर तबके ने कोरोना के वक्त लॉकडॉउन में शहरों के बीचो-बीच भूख और भय के चालीस दिन गुजारे थे. वहीं बीमारी फैलने के खौफ में शहरों ने इन मजदूरों को झोपड़-बस्तियों में कैद कर रखा. आखिर सब्र का बांध टूटा और मजदूर निकल पड़े अपने गांव की ओर... समझ गए शहरों की सच्चाई, ये वहीं शहर हैं कि अब भी मजदूरों के शोषण के लिए अपनी राजनीतिक ताकत का इस्तेमाल कर रहे हैं. उन्हें जाने से रोका जा रहा है, भूखे पेट-नंगी पीठ पर लाठियां चलाई जा रही हैं. आने जाने के साधन और सड़कें तक बंद की जा रही हैं. पुलिस हमलावर हो चली है. ट्रेनें तक बंद कर दी गई थी. मालिकों ने कोरोना का नाम ले कर मार्च का वेतन हड़प लिया. महामारी की खबर भर से इंडिया के मालिकों ने एक महीने काम करवा कर मजदूरों की तनख्वाह दबा ली. इंडिया के मालिकों ने लॉकडॉउन का हव्वा बना कर बिन पैसे, बिन रोटी सड़क पर इन्हें भूखा छोड़ दिया. प्रधानमंत्री मोदी ने इन्हें रोटी देने की सबसे अपील कर डाली. खुद अपना पीएकेयरफंड बनाने में जुट गए ताकि कोई हिसाब ना मांग सके.छोटे-छोटे बच्चे लहुलुहान पैर लिए राष्ट्रीय राजमार्ग पर रोते हुए चलते रहे, लेकिन अभिनेत्रियों, खिलाड़ियों के लिए भावुक हो जाने वाले राष्ट्रनायक ने संवेदना का एक शब्द तक नहीं कहा.
    लेकिन ये रिवर्स माइग्रेशन यानि प्रवासी मजदूरों की वापसी बहुत अच्छा संकेत नहीं है. हज़ारों किलोमीटर पैदल सफर कर वापिस लौटने वाले मजदूर भूख, भय और इतनी प्रताड़ना सह चुके हैं कि वो जल्द वापिस आने को भी तैयार नज़र नहीं आते. उनकी कोशिश है कि उन्हें वहीं मजदूरी मिल जाए तो वो कभी भी वापिस शहर नहीं लौटेंगे. शहर ने उन्हें दिया भी क्या, असुरक्षा के अलावा.
    चालीस दिनों तक दो -तीन दिन में एक वक्त आधा पेट भी खाना नसीब ना होने पर बीमारी का डर भाग चुका है . मजदूर को इस दौर में रोटी की जरूरत थी. जो सरकार भी देने को तैयार नहीं थी तो ना ही आम लोग सभी को खिलाने की हालत में थे. ऐसे में मजदूर कहीं जानवर से छीन कर खा रहा था तो कहीं घास-पत्ती से गुजारा कर रहा था. लेकिन इसके बावजूद उसने शहरों में लूटपाट नहीं की. चालीस डिग्री सेंटीग्रेड की तपती धूप से उबलती सड़कों के कोलतार पर कहीं नंगे पैर तो कहीं प्लास्टिक की बॉटल बांध कर चल पड़ा हज़ार किलोमीटर से भी ज्यादा दूर अपने गांव. आस ले कर चल पड़ा उसी गांव की ओर जिसे वो अपना सपना कमाने के लिए बेरुखी से छोड़ कर चला गया था.
    आज़ादी के बाद पुरातन सामंती व्य़वस्था को पूंजीवाद ने तोड़ना शुरू कर दिया था, मध्यम वर्ग औऱ शहरों के उदय से भारतीय लोग निजता की तलाश में गांव से निकल पड़े थे. उद्योगाधारित विकास ने ग्रामीण समाज-संस्कृति औऱ ग्राम्य अर्थ व्यवस्था को अनाथ बना दिया. खेती घाटे का सौदा हो गया. साल दर साल कर्ज औऱ गरीबी के दलदल में गहरे धंसते किसान परिवार से शहर जाने वाला अब भगवान नज़र आता है, वो नकदी की जरूरत पूरी करता है. कृषि, सिंचाई, उपज, बाज़ार व्यवस्था के बड़े बड़े नारे बड़े किसानों के लिए रह गए. छोटे किसानों की जोत और छोटी होती चली गई. वो किसान भी है तो खेतिहर मजदूर भी. मजदर बनने के बाद फिर गांव-जवार की दीवार क्या देखना. हरियाणा-पंजाब से लेकर हर उसे सूबे का चक्कर लगाता है जहां उसे मजूरी मिल जाए. कुछ पढ़े-लढ़े बच्चे शहरों में अपने पने ढंग से सपनों की खेती में जुटे. कोई मजदूर ही रहा तो कुछ मध्यम वर्ग तक पहुंच गए.
    लेकिन कोरोना ने इस भारत को बता दिया कि इंडिया में गरीब-मजदूर तबके की ज़रूरत सिर्फ सस्ती लेबर के लिए है, उसके लिए शहरों के दिल में बहुत जगह नहीं है. इसीलिए लॉकडॉउन के वक्त मजदूरों को बाड़ों में कैद कर लिया गया. तो तीसरे लॉकडॉउन के वक्त अपने पैरों के भरोसे पैदल घर जाने के लिए मजबूर कर दिया गया. और जब वो जाने लगा तो फिर अर्थव्यवस्था का पहिया घुमाने के लिए उसके पैरों में बेडिया डाली जाने लगीं. राजनीतिक संवेदनहीनता का हाल ये है कि इन मजदूरों ने दो सौ साल संघर्ष कर जो अधिकार कमाए थे , पूंजींपतियों के भले के लिए वो इनसे छीने जा रहे हैं. यूपी, एमपी और गुजरात समेत कई राज्यों में श्रम कानून मुल्तवी कर दिए. यानि शहरों में बंधुआ बनानें की नाकाम कोशिश के बाद अपने राज्य लौटर रहे मजदूरों के पैरों में बेडियां डालने की तैयारी कर ली गई है. उन्हें आठ गंटे के बजाय बारह घंटे काम करना पड़ेगा. सिर्फ यही नहीं, और भी कई कड़वी सच्चाईयां हैं. जिन पर अलग से बात करने की जरूरत है. 
    दरसल कोरोना ने तो बताया कि उसके लिए मजहब के कोई मायने नहीं हैं. और अब इंसान और इंसान में फर्क किया गया तो मानव जाति ही मुश्किल में पड़ जाएगी. लेकिन बांटने की राजनीति ने मौत की भी परवा नहीं की. कहीं मुस्लिम हिंदू का हाथ थामते रहे तो कहीं हिंदू मुसलमान इंसानियत की मिसाल बन गए. अगर कौमों के बीच भाईचारा हो गया तो सियासत खत्म हो जाएगी, सो जमाती के नाम इतनी नफरत परोसी गई कि कोरोना और जमातियों के बीच फर्क करना बंद कर दिया गया. गांव में भी खाईयां खोद दी गईं. हालांकि धीरे धीरे हकीकत सामने आने लगीं, फिर भी लाशों पर सियासत गरमाने लगीं है.
     1947 के बाद बहुत से सपने अधूरे रह गए. आर्थिक आज़ादी मिली ही नहीं. मालिक बदल गए,बागड़ोर किसी और के हाथ में चली गई. लेकिन कोई बात नहीं,मजदूरों ने बड़े –बड़े बांध बनाए,अस्पताल, स्कूल, कॉलेज औऱ यूनिवर्सिटियां बनाईं, बनाए शोध संस्थान, इंजीनियरिंग, विज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए बड़ी बड़ी इमारतों की डाली बुनियाद, लेकिन खुद पीढ़ी दर पीढ़ी रहे खानाबदोश. आज इस ठौर तो कल उस मोड़. कभी किसी के लिए बुनियाद में दफन तो कहीं किसी मीनार को बनाते बनाते ज़मींदोज़.
    आजादी के कई सौ साल पहले से देश के सपनों की नींव रखने का काम करते रहे हमारे गांव, अपने ही सीने पर इन्होंने बनाए कई बड़े बड़े शहर और खुद गुमशुदा हो गए. गांव से निकला ये भारत अब वापिस गांव लौट रहा है. इन्होंने ही अपने हाथों से गढ़ा है इंडिया. जिसकी ऊंचाई देखते वक्त टोपी नीचे गिर जाती है. वो अपनी टोपी इस इंडिया के पैरों पर रख कर वापस लौट चला है.
    तकलीफ की बात ये है कि गांव में भारत किस भरोसे लौट रहा है. वहां कौन है तेरा, मुसाफिर जाएगा कहां.. बेहाल मां, थका-टूटा बाप,कुंआरी बहन,नशेबाज़ भाई, भारत की वापसी की खबर से और परेशान है. ऐंठन लिए सवर्ण समाज लाठियों को तेल पिला रहा है. मनरेगा के ठेकेदार बन चुके हैं बाबूसाहेब लोग. खाते से अपने पैसा मजदूर  निकालेगा और कमीशन ठाकुर के पैरों पर रखना होगा. फिर मनरेगा तो सुखा भी दी गई, कांग्रेस ने बनाई थी. भारत को आलसी बनाने की योजना बता कर आईना दिखाने के लिए ज़िंदा रखी गई है. क्या करेगा भारत. चाय की दुकानों पर बैठेगा कितनी देर. सरकारी तो दूर की बात, गांव में भी मजदूरी मिलना आसान नहीं. बंद मुठ्ठी सवा लाख की. भले ही वो पैसा कभी भेज पाए कभी नहीं, लेकिन बाप सिर उठा कर जीता रहा गांव में. अब वो घुटनों के बीच सिर घुसा कर बैठा है. तो मां को तसल्ली है कि जान है जहान है प्रधानमंत्रीजी ने कही थी.
    लेकिन गांव को शहरों ने धोखा दे दिया. अंग्रेजों से कम तकलीफ नहीं दी. कभी रोजगार गारंटी नहीं दी, कभी हर रोज खाने का भरोसा नहीं दिया, कभी इलाज के लिए अस्पताल का भरोसा तक करने नहीं दिया. ढंग का पहनना-ओढ़ना तो दूर की बात. तो भारत क्या करता. चल पड़ा अपने गांव. पैदल-पैदल . लेकिन अब क्या करेगा इंडिया. सस्ते मजदूर नहीं मिलेंगे तो मुनाफा कैसे कमाएगा इंडिया. बड़े बड़े म़ॉल्स, इमारतें, पेंट हॉउस, होम डिलीवरी के लिए मोटर साइकिलों पर सुबह से रात तक सैकड़ों किलोमीटर नाप देने वाली गांव की जवानी कब तक भूखे रह कर जिंदा रह पाती. लेकिन इंडिया को फिक्र है कि  गांव चला गया भारत तो डूब जाएगी अर्थ व्यवस्था. टूट जाएगी सप्लाई चेन. लॉकड़ॉउन हटने के बाद भी खुल नहीं पाएंगे बाज़ार, फैक्ट्रियां और उद्योग-व्य़ापार. इंडिया को विदेशों से लाने के लिए हवाई जहाज से लेकर पानी तक के जहाज़ लगा दिए गए. तो भारत को वापिस जाने से रोकने के लिए सड़कों पर बैरिकेड. आज़ाद हिंदुस्तान में खुले आम मजदूरों को बंधक बनाने की साज़िश जारी है. जो व्यौपारी इन मजदूरों का महीने भर का मेहनताना मार ले, उससे कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वो इनको वाजिब मजूरी दे पाएगा. मार्च की तनख्वाह तो छोड़िए, पिछले चालीस दिन का खर्च कोई बांटने को तैयार नहीं. ऐसे में क्या गारंटी है कि काम-धंधे शुरू होने पर इन मजदूरों को पर्याप्त वेतन दे ही दिया जाएगा. तब बिक्री ना हो पाने के नाम पर भी इनका ही शोषण होगा.
    अब पूंजीपतियों को अपना मुनाफा समझ आ रहा है. मूल से सूद प्यारा होता है. क्रोनी कैपिटलिस्टों ने सत्ता पर कब्जा कर अपना मुनाफा दोगुना करने के लिए लोकतंत्र के ताबूत में आखिरी कील गाड़ दी. इलेक्टोरल फंड्स में अथाह पैसा जमा कर, बिके हुए मीडिया हॉउसेज के जरिए अपने पिट्ठू का चुनावी प्रचार-प्रसार करवा कर इन पूंजीपतियों को लगा कि वो पूंजी के ढेर के शिखर पर जा बैठेंगे. बैठे भी. वैश्विक महामारी के दौर में भी देश के कुछ पूंजीपतियों का मुनाफा लगातार बढ़ा. लेकिन इन क्रोनीज़ ने बंदर के हाथ मं उस्तुरा दे कर अपने लिए बड़ा नुकसान कर लिया. हालात ये है कि नोटबंदी, जीएसटी जैसे फैसलों से बाज़ार में आई मंदी से कई पूंजीपतियों की चल अचल संपति का मूल्य 38 फीसदी तक घट गया है. लेकिन संकीर्ण मानसिकता की वजह से भारतीय बुर्जुआ वर्ग मजदूर के शोषण को अपना अधिकार मानता है. सच्चाई तो ये है कि वो अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिए मजदूर को बेरोजगार भी बनाता है तो उसकी कमी का रोना भी रोता है. मजदूर जुटाने के नाम पर बैंकों से कर्ज मांगता है. लेकिन ना तो पूंजीपति और ना ही उसके पैसे से बनी सरकार मजदूरो से उनका दुख दर्द बांटने को तैयार है. 
    तो थक हार कर गांव लौट रहा भारत. राज्य सरकारें श्रम कानूनों को खत्म कर, हको-हुकूक छीन कर इन मजदूरों को नए मालिकों के हवाले करने को तैयार हैं तो सामंती व्यवस्था पुराना हिसाब करने को बकरार है. कुल मिला कर राम के नाम पर उनसे वोट लेने वाली सरकार उनकी वापसी पर ट्रेन का किराया भी देने को तैयार नहीं हुई. लेकिन कोरोना पर इन मजदूरों की मदद के नाम पर अरबों का कर्ज लेकर अपनों को रेवड़ी बांटने की कवायद जारी है. क्या करें यही भारत की लाचारी है...
    -अंशुमान त्रिपाठी 
     
  • Post a comment
  •       
Copyright © 2014 News Portal . All rights reserved
Designed & Hosted by: no amg Chaupal India
Sign Up For Our Newsletter
NEWS & SPECIAL INSIDE!
ads