पहले कोरोना और फिर मंदी रोकने के लिए गरीब-मजदूरों का लॉकडॉउन
पहले कोरोना फिर मंदी के लिए मत लीजिए मजदूरों की बलि
केंद्र सरकार ने राज्यों को प्रवासी मजदूरों की एक राज्य से दूसरे राज्य में जाने पर रोक लगाने को कहा गया है. रोज कमाने-खाने वाले मजदूरों की दुर्दशा की परवा किए बगैर आननफानन लॉकडॉउन का फैसला जारी कर दिया गया था. और महात्माओं की तरह दुनिया भर को गरीबों को खाना खिलाने का सदोपदेश दिया गया. लाखों की तादाद में ये लोग राशन-खाने के मुकम्मल इंतज़ाम के बगैर जहां-तहां बंद रहे. वे जानते थे कि देश को बचाने के लिए उनको ही अनिश्चितकालीन जबरिया उपवास कराया जा रहा है. लेकिन किवाड़ों के भीतर भूख से तड़पते मजदूरों ने पेट पर कपड़ा बांध वक्त गुजारा तो फिर मुकम्मल इंतज़ाम के बगैर दुनिया भर में शोहरत के लिए लॉकडॉउन बढ़ा दिया गया. मजदूरों के बच्चे दूध के लिए बिलखते रहे और प्रसूता दूध ना उतरने पर सिसकियां भर रोती रही. लेकिन लौहपुरुष के चेहरे पर बोटोक्स की ताज़गी कम ना हुई. चार बरस बाद चुनाव के वक्त आंखों में पानी भर कर पॉलिटिकल थिएटर खेला जाएगा.
तब कोरोना रोकने के लिए गरीबों से जबरिया भूखा रखा गया. एक सर्वेक्षण बता रहा है कि लॉकडॉउन के दौरान करीब नब्बे फीसदी मजदूरों को उनके मालिकों ने कोई वेतन नहीं दिया. लेकिन देश के सबसे बड़े फैशनेबल फकीर को इसकी कोई परवा न थी. और सिर्फ चार फीसदी मजदूरों को सरकारी राशन मिला. बाकी सत्तर फीसदी तक वितरित हो रहा पका हुआ भोजन नहीं पहुंचा. अठहत्तर फीसदी के पास तीन सौ रुपए भी निकले. लिहाज़ा ये मजदूर वर्ग भूख से तड़पता हुआ कभी मुंबई के बांद्रा में तो कभी गुजरात के सूरत में सड़कों पर खाने के लिए या फिर घर जाने के लिए भटकता रहा. इन्हें पुलिस की लाठी के जोर पर इनकी झोपड़बस्तियों में हांक दिया गया. लेकिन इके घर जाने के रास्ते कोरोना की रोकथाम के नाम पर बंद कर दिए गए.
मजे की बात है कि लॉकडॉउन से शोहरत बहुत मिली. मजदूर हज़ार-हज़ार मील दूर अपने बच्चों को गोद और कंधे पर बिठा कर अपने गांव की ओर दो-दो -तीन-तीन दिन खाए-पिए बगैर चलते रहे, कुछ गिर कर मरते भी रहे लेकिन कड़े फैसले के लिए तालियां औऱ थालियां दुनिया भर से मिली. कोरोना की टेस्टिंग कम होने से मामले भी कम मिले लेकिन इससे दुनिया भर में शोहरत बहुत मिली. मजदूरों के जबरिया उपवास में भी हाकिम अपने छप्पन इंच के फैसले को बेचते रहे.
अब सबको लॉकडॉउन खत्म होने पर गांव जाने की आस बंधी है. शहरों में फिलहाल दो महीने तक रोजगार के हालात को लेकर उनके मन में डर बैठा है. तीन हफ्ते से तीन दिन में एक बार अधपेट खाने से तम-मन जवाब दे चुका है. घर-गांव में भी परिवार भूख और भय में जी रहा है. ऐसे में होरी का बेटा गोबर अब गांव लौटना चाहता है. इस चमक-दमक वाले शहरी रौनक से उसका जी भर गया है. वो रूखी-सूखी खा कर अपनी धरती-अफने गांव में बाकी उमर शांति से रहना चाहता है.
इस बार मन पक्का बना लिया है. बच्चों को लेकर जाएगा गांव, कम से कम बच्चे भर पेट तो खाएंगे.
लेकिन बाबू, इतना आसान नहीं है वापिस जाना. ये शहर, ये ऊंची ऊंची इमारतें, ये महल-चौबारे, और इनमें रहने वाले ये सब लोग, तुम्हारे ही खून-पसीने के बल पर यहां टिके हैं. मोटे-मोटे सेठों के पेट में तुमहारे हिस्से की फूलती रोटियों की गैस ही तो भरी है. तुम जाओगे तो इनकी हवा खिसक जाएगी. नेताओं को इनसे मिलने वाला दाना-पानी बंद हो जाएगा. पूरा का पूरा लोकतंतर बिखर जाएगा. ये जो विकास है यहां से अंटार्कटिका तक,ये बिजली के तार में तुम्हारी कटिया फंसाने पर ही टिका है.फैक्टिरयों को लाखों यूनिट तुम्हारी आड़ में ही मिलती है.
कोरोना के लिए तुम्हारा बलिदान, याद रखेगा हिंदुस्तान, अभी ऐसे थोड़े ही जान देंगे. अभी कोरोना भगाने के लिए तुम्हारी बेगारी-भुखमरी की जरूरत राष्ट्र को है, उसके बाद आर्थिक महामारी औऱ मंदी भगाने के लिए तुम्हारी जरूरत है. तुम गांव चले जाओगे तो राष्ट्रवाद का क्या होगा. राष्ट्रवाद से भृष्टाचार खत्म होगा, भृष्टाचार खत्म होने से तुम्हारी मजदूरी बढ़ जाएगी, तुम्हारे बाबूजी को उनकी फसल के दोगुने दाम मिलेंगे. किसान की आय दोगुनी करनी है अभी. कहां गांव जा रहे हो.
जाहिर है कि लॉकडॉउन से तितर-बितर हुए मजदूरों को रोक कर सप्लाई चेन ठीक करना है. सरकार ठेकेदार की तरह इन पर दबाव बनाना चाहती है. जिस मानिसक औऱ शारीरिक यातना से ये मजदूर गुजरे हैं, उसे भूलने के लिए कुछ वक्त अपनों के बीच गुजारना चाहते हैं. यूं तो ये भी जानते हैं जन्नत की हकीकत लेकिन अगर जाना चाहते हैं गांव तो हाकिम रोक क्यों रहे हैं इन्हें. लेकिन क्या करें आपके खून में ही व्यौपार है. व्यौपारी का दुख आपसे कभी देखा न गया.
अमेरिका में ग्यारह बरस में पैदा हुए रोजगार महज चार हफ्तों में फनां हो गए. हाकिम खूब समझ रहे हैं. छोटे-छोटे बनियों की दुकानें और फैक्टरियां खुलते खुलते अभी वक्त लगेगा. तब तक रोज लेबर मार्केट के ठिए पर कौन खड़ा होगा. अमेरिका के पिछलग्गू हम हैं लेकिन कांईंयां उससे ज्यादा. वो कोरोना राहत पर दस फीसदी खर्च कर रहा है तो हम दशमलव आठ फीसदी. कोई दूसरी योजनाओं में कोरोना का पुछल्ला जोड़ कर भारी-भरकम पैकेज बनाया जा रहा है. एमएसएमई और छोटे व्यापारियों को लाभ देने के लिए नाबार्ड, सिड्बी, नेशनल हाउसिंग बैंक जैी एनबीएफसी में एक लाख करोड़ रुपए डाने की योजना है. ताकि इमारतें खड़ी हों और तुम्हें मजदूरी मिल सके. लेकिन तुम्हारे हाथ सिर्फ पांच सौ रुपए की इमदाद आएगी.
कहने को तो राज्य सरकारों को सलाह दी गई है कि वो तुम्हारा रजिस्ट्रेशन करे और तुम्हारे हुनर के मुताबिक तुम्हें मजदूरी दिलाए. इसलिए घर-गांव-जवार की बात कना छोड़ दो. राष्ट्र के पुनर्निर्माण में तुम्हारे योगदान की जरूरत है. सियासत के लिए मुनाफे का बाज़ार जरूरी है. और बाज़ार के लिए फिलहाल तुम्हारा बेगार जरूरी है.
-अंशुमान त्रिपाठी