कैद मत करिए गरीब-मजदूरों को, मत आजमाईए आपराधिक तरीके
गोरे-राज की तरह मजदूरों पर अत्याचार सही नहीं है सरकार...!!
- अंशुमान त्रिपाठी
कोरोना-काल में सरकारें राजतंत्र की तरह काम करने लगी हैं. अगर कहा जाए कि ये अपराधी गिरोह की तरह दमन-शोषण के तरीके आजमा रही हैं तो भी गलत ना होगा. हालात ये हैं कि इन्होंनें मजदूरों पर अत्याचार में अंग्रेजों को भी पीछे छोड़ दिया है. इसकी बानगी कर्नाटक, गुजरात,मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में प्रवासी मजदूरों पर हो रहे अत्याचारों से जाहिर है.
कर्नाटक सरकार ने प्रवासी मजदूरों के लिए चलाई जाने वाली ट्रेन रद्द कर दी. सरकार की दलील है कि मजदूरों को अब जाने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि उनके लिए रोज़गार की व्यवस्था की जा रही है. लगभग यही तरीके गुजरात सरकार भी अपना रही है, जहां हज़ारों की तादाद में मजदूर अपने-अपने गांव जाने के लिए परेशान हैं. दोनों जगह केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी की ही सरकारें हैं. और सरकार के मुखिया अपनी सरकार को गरीबों की सरकार बताते हैं और खुद गरीबी की तकलीफ सहने का दावा करते रहे हैं. देश की जनता ने भी इन्हें अपने ही बीच से प्रधानमंत्री पद तक पहुंचा हुआ नायक माना और दोबारा पांच साल के लिए देश की बागडोर सौंपी.
अभी तक गरीब की सरकार बनाम सूट-बूट की सरकार एक राजनीतिक नारे की तरह लगते थे. सत्ता पाने के लिए गढ़े गए विमर्श की तरह लगते रहे. लेकिन कोरोना त्रासदी के वक्त जिस तरह से संवेदनहीनता दिखा रही हैं सरकारें, वो हैरान कर देने वाला है. लोकतांत्रिक तरीकों से चुन कर आई ये सरकारें किसी राजतंत्रीय व्यवस्था की तरह अपनी रियाया से बर्ताव करने में जुट हुई हैं. अगर सिलसिलेवार तरीके से सरकार का गरीब-मजदूर जनता के साथ बर्ताव देखें तो तो ये ना सिर्फ अमानवीय बल्कि पाशविकता के स्तर तक आपराधिक तरीके नज़र आते हैं. चाहे अकस्मात हुए लॉकडॉउन की बात करें, जिसमें रोज़ कमाने-रोज खाने वालों को एक-एक वक्त के खाने के लिए किस तरह से तरसने को मजबूर किया गया, ये पैसला प्रधानमंत्री की छवि पर क्रूरता की हद तक संवदेनहीनता दिखाता है. उस पर भी किसी धार्मिक उपदेशक की तरह आम लोगों से गरीबों को भोजन उपलब्ध कराने का नौतिक दवाब का भाषण दे कर पीएम मोदी ने अपना फर्ज अदा कर दिया. लेकिन उनकी सरकार का शातिराना दिमाग तेज़ू से चलता रहा. खटाखट पीएम केयर फंड बना डाला और मानवीय त्रासदी से जूझ रहे लोगों से गहने तक दान देने का एक औऱ उपदेश दे दिया. लेकिन पीएम केयर फंड की जांच और जानकारी का हक जनता को नहीं दिया. सरकारी संस्था ईएजी को जांच का अधिकार देने के बजाय सुना जा रहा है कि गुजरात की एक कंपनी का आडिटर नियुक्त कर दिया गया. राजनीति के इन आसाराम से मोहभंग जब भी नहीं हुआ. इन्होंने संक्रमित मरीजों का लाज़ करने वाले स्वास्थ्य्कर्मियों को सुरक्षा उपकरण मुहय्या कराने के बजाय ताली और थाली बजवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. भावुक लोग पीएम की पहल के सम्मान में सड़कों तक पहुंच गए. लेकिन अस्पताल पीपीई, मास्क, ग्लोब्स और वेंटिलेटरों की कमी से जूझते रहे औऱ आज तक जूझ ही रहे हैं. लिखे जाने से कुछ घंटों पहले ही बिहार में नर्सों को सड़क पर उतर कर प्रदर्शन करना पड़ा.
इन सबके बावजूद देश के गरीब-मजदूर पीएम मोदी से आस लगाए रहे.हिंदी पट्टी लेकर बंगाल-ओडिशा तक रोज कमाने-रोज़ खाने वाले मजदूर फरवरी की मजदूरी से आज तक अपना खर्च चलाने के लिए मजबूर हैं. आज केंद्र की शह पर कर्नाटक, गुजरात, एमपी औऱ यूपी की राज्य सरकारें ठेकेदारों की तरह मजदूरों पर हंटर चला रही हैं, ये हैवानियत निलहे किसानों पर अंगेरजों के अत्याचार को भी पीछे छोड़ रहा है. ज्यादातर मजदूरों को इनके मालिकों ने मार्च का वेतन नहीं दिया. सरकार ने न्हें भूखे-प्यासे लॉकडॉउन करके बंद रखा. सर्वेक्षण बताते हैं कि पका हुआ खाना महज़ तीस फीसदी मजदूरों तक पहुंचा. और जब भूख से बिलबिलाते मजदूर बाहर निकले तो उन्हें लाठियों से पीटते हुए वापिस झोपड़-बस्तियों में खदेड़ दिया गया. सरकार को इन मजदूरों की भूख की फिक्र से ज्यादा फिजूलखर्ची की चिंता थी. अंत्योदय-बीपीएल औऱ एपीएल कार्ड दिखाने पर भी बहुत से मजदूरों को राशन नही मिल सका.
सत्तारूढ़ पार्टी को जब यूपी के चुनाव की चिंता सताई तो प्रधानमंत्री के आदेश का उल्लंघन कर राजस्थान के कोटा से छात्रों को लाने की इजाजत दे दी गई. फिर चुनावी मसीहाई दिखाने के लिए यूपी के मजदूरों को भी वापिस लाने की बात शुरू की गई. इसके पहले मजदूर रोज़ गुजरात के सूरत और कर्नाटक के बैंगलुरू में भूखे पेट लाठियां खाते रहे.
मजदूरों की वापसी का मुद्दा उठने पर केंद्र सरकार ने राज्य सरकार को उनसे किराया जुटा कर अदा करने का निर्देश दिया. लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दांव ने बीजेपी को चित्त कर दिया. तब दावा किया गया कि केंद्र सरकार 85 फीसदी किराया चुका रही है औऱ राज्य को 15 फीसदी वसूल कर केंद्र को अदा करना होगा. लेकिन ये सिर्फ लफ्फाज़ी साबित हुई. केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट को ये बताने में नाकाम रही कि उसने अपने हिस्से का पैसा रेलवे को दे दिया है. इन सब हालात में भूखे-प्यासे मजदूर स्टेशनों के बाहर कई –कई किलोमीटर तक कतार में खड़े रहे. बहुत से तो हज़ारों किलोमीटर का सफर करने पैदल ही अपने दुधमुंहे बच्चे और गर्भवती पत्नी को लेकर निकल पड़े. पिछले चालीस दिनों से अकसर गांव जा रहे मजदूरों की रास्ते में दर्दनाक मौत की खबरें आती रहीं, लेकिन मोदी सरकार कोरोना से लड़ाई में दुनिया भर में भारत की ताली और थाली बजने की बात कह कर अपनी पीठ थपथपाते रहे. किसी खिलाड़ी या अभिनेत्री को ज़रा सी तकलीफ होने पर आहत हो जाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक भूख औऱ धूप से सड़कों पर मर रहे मजदूरों की खबर नहीं पहुंच सकी. और तो और सच्चाई तो ये है कि मजदूरों ने खुद अपना किराया चुकाया वो भी सामान्य से दोगुने से ज्यादा. सरकार से मीडिया सहानुभूति जताता रहा कि उसके पास पैसे नहीं बचे. मजदूरों को सुप्रीम कोर्ट भी मजदूरी दिलाने की मांग पर भड़क गया. अदालत का मानना था कि उन्हें मुहय्या कराया जाने वाला खाना क्या काफी नहीं है. ये वही सर्वोच्च न्यायालय है जिसका मानना है कि संकट काल में लोकतंत्र के सभी अंगों को समन्वय के साथ काम करना चाहिए. देश के शासक वर्ग की मानसिकता को इससे समझा जा सकता है.
तीसरी बार फिर लॉकडॉउन बढ़ा दिया गया.दो माह से दो वक्त खाने को तरस गए मजदूर अब सब्र खो बैठे. सरकार ने भी रहमदिली दिखाते हुए इन्हें जाने का मौका दे दिया. लेकिन जाने का खर्च नहीं दिया. जबकि पिछली बार विदेशों से विमान से लाए गए लोगों का खर्च सरकार ने खुद वहन किया था. मजदूरों को गरीब-मजदूरों की सरकार ये इंतज़ाम नहीं कर पाई. मजे की बात ये है कि जो रेलवे मजदूरों के किराए का खर्च नहीं उठा सकी , वो पीएम केयर फंड में 151 करोड़ रुपए जमा कर चुकी है. यही नहीं रेलवे समेत देश भर के सरकारी कर्मचारियों पर दबाव बना कर पीएम केयर फंड में पैसा डलवाया जा रहा है.
इस बीच कोरोना के नाम पर पैसा जुटाने की मुहिम जारी रही. एशियन डेवलपमेंट बैंक से डेढ़ अरब डॉलर का पैकेज मिल गया. अप्रेल माह की शुरुआत में भी स्वास्थ्य के क्षेत्र के लिए सरकार ने एक अरब डॉलर इसी बैंक से जुटाए हैं. दावा है कि सरकार को अर्थ व्यवस्था की फिक्र है और इकॉनॉमी को पटरी पर लाने के लिए मजदूरों को पलायन से रोका जा रहा है.
लेकिन मजदूरों को घर जाने से रोकने के लिए किसी अपराधी गैंग के तरीकों का इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है. राज्य सरकार ट्रेनें रद्द कर देती हैं और केंद्र सरकार मुंह बाए देखती रह जाती है. यहां सरकार की भूमिका उन ठेकेदारों की तरह है जो मजदूरों को बंधुआ बना कर जबरिया मजदूरी कराते हैं. कर्नाटक के मुख्यमंत्री का कहना है कि मजदूरों को जाने की ज़रूरत नहीं है. लेकिन मजदूर कोरोना की महामारी के हालात में अपनों से मिलने जाना चाहते हैं. वो किसी ना किसी साधन से या साइकिलें चला कर तो पैदल चल कर सैकड़ों मील का सफर तय भी कर चुके हैं. लेकिन एमपी औऱ यूपी सीमा पर पहुंचने पर उन पर लाठियां बजाई जा रही हैं और उन्हें वापस भेजा जा रहा है. क्या ये राज्य सरकारें प्रधानमंत्री मोदी के गृहराज्य से मजदूरों को भागने की सज़ा दे रही हैं. कर्नाटक सरकार ने हज़ार करोड़ रुपए के एक पैकेज का ऐलान किया है. लेकिन सवाल ये है कि उद्योगपतियों, कारोबारियों और ठेकेदारों ने इन मजबूर लोगों की मजदूरी दबा ली है. और आगे भी रोज़गार और मजदूरी मिलने की गारंटी नहीं है.
लेकिन सवाल इससे भी बढ़ कर है. मजदूर सस्ती लेबर होने के अलावा एक इंसान भी है जहांपनाह. उसकी भी कुछ हसरतें है,नाते-रिश्ते हैं हुजूर. उसे आपके और आपके पैसेवाले दोस्तों के ताज़महल बनाने में कोई गुरेज नहीं है मालिक. बस एक बार उसे अपने गांव-जवार जाने दीजिए प्रभुवर. अपने घर की देहरी छू आने दीजिए सरकार. वो बिना मीडिया के अपनी मां से मिलने जा रहे हैं महादेव.बूढ़ी मां को हौसला दे कर लौट आएंगे. तब आप एक बार फिर ताली औऱ थाली भी बजवा लीजिएगा.
-अंशुमान त्रिपाठी