रोटी, कोरोना और लॉकडॉउन
कोरोना से ज्यादा बड़ा खतरा है बेरोजगारी और भूख
भूख और बेरोजगारी से दोगुनी मौत होने का अंदेशा...
-अंशुमान त्रिपाठी
देश औऱ दुनिया सदी के सबसे बड़े संकट से गुजर रही है लेकिन सरकार सियासत करने से बाज़ आने को तैयार नहीं. बैठक के नाम पर जिस तरह का राजनीतिक प्रलाप होता है, उसे देख कर केरल के मुख्यमंत्री पिनारायी विजयन ने शामिल ना होने का फैसला किया. बावजूद इसके राजनीतिक क्रूरता खुल कर सामने आई. नौ मुख्यमंत्रियों को ही बैठक में बोलने का मौका दिया गया. ये क्रम कोरोना के संक्रमण की व्यापकता और तीव्रता के आधार पर नहीं तय किया गया. होना ये चाहिए था कि जो राज्य संक्रमण से ज्यादा जूझ रहे हैं और पीड़ित हैं, उन्हें बगैर राजनीतिक भेदभाव के पहले मौका दिया जाना चाहिए था. लेकिन इस सूची के तहत बीजेपीशासित राज्यों के मुख्यमंत्री, फिर सहयोगी दल औऱ आखिर में कांग्रेस शासित पुडुच्चेरी के मुख्यमंत्री वी नारायणस्वामी को मौका दिया गया. बाकी को अपने सुझाव लिख कर देने को कहा गया.
वैसे भी बैठक में होना क्या था, अमूमन प्रधानमंत्री मोदी ऐसी बैठकों में अपनी तरफ से कोई प्रचार का मुद्दा उछालते हैं, जिनमें विपक्ष दलों के मुख्यमंत्री भी मौजूद हों. हुआ भी ऐसा ही, पीएम मोदी ने कहा कि लॉकडॉउन से फायदा हुआ है. बस राज दरबार की तरह पूरे वीडियो संवाद में हां फायदा हुआ है की गूंज हो गई. इस मौके पर ना कहने की ज़रूरत थी भी नहीं. पीएम मुदित हुए कि हेडलाइन बन गई कि सभी मुख्यमंत्रियों ने पीएम मोदी की सूझबूझ का लोहा माना. लाल बुझक्कड़ बूझिए, और ना बूझे कोय. ये मौका था भी नहीं ये सवाल पूछने का कि फायदा भले ही हुआ है मोदीजी लेकिन हवाईअड्डों पर सख्त स्क्रीनिंग में दो माह की देरी का नुकसान कितना भुगतना पड़ा है गुजरात और पूरे देश को. ये क्यों और कैसे हुआ. कौन है इसका जिम्मेवार. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप के प्रचार की सज़ा अहमदाबाद और आगरा की जनता क्यों भुगतने को मजबूर है. क्यों एमपी में सरकार गिराने की हवस की वजह से लॉकडॉउन में की गई एक माह की देरी. यही वजह है कि मरीज़ को अस्पताल में भर्ती करने के बजाय आज पूरे देश को अस्पताल बनाना पड़ रहा है. ये समझ में नहीं आ रहा कि सही मायने में संक्रमण कितना बढ़ रहा है तो कितने लोगों की रिकवरी हुई. क्योंकि ज्यादातर मामले असिम्टोमेटिक सामने आ रहे हैं. बल्कि अब तो सिरदर्द, मांसपेशियों में दर्द, गंध लेने की क्षमता गायब होने, जैसे कई लक्षण भी सामने आ रहे हैं, जिनके बीच असली संक्रमितों की तादाद का अनुमान लगाना तब तक मुश्किल है जब तक कि प्रभावित क्षेत्रों में हरेक का टेस्ट ना किया जाए.जो मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है. ऐसे में लॉकडॉउन की अवधि क्या हो, ये बता पाना सरकार के लिए तो क्या विशेषज्ञों के लिए भी आसान नहीं है.
विपक्ष रचनात्मक भूमिका का मन बना चुका है. जनता समझ रही है. लेकिन ममता बनर्जी ने केंद्र की भावी रणनीति को विरोधाभासी बता ही दिया. उन्होंने कहा कि एक तरफ लॉकडॉउन के सख्ती से पालन को कहा जा रहा है तो दूसरी तरफ दुकानें, व्यापार, व्यवसाय औऱ कुछ लघु उद्योग शुरू करने का भी आदेश देना दो परस्पर विरोधी बाते हैं. ममता जानते हुए भी सवाल उठा रही हैं. सारे नियम कायदे विपक्षी सरकारों के लिए हैं, वरना आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र कोटा के बाद अब हरियाणा से पंद्रह सौ मजदूरों को यूपी वापस पहुंचा दिया गया है. नीतीश कुमार कोरोना, भूख औऱ भय से संघर्ष कर रहे बिहारी छात्रों को गठबंधन धर्म का पाठ पढ़ा रहे हैं. मजदूरों के बारे में तो उन्होंने पहले ही अपना ये रवय्या साफ कर दिया था. उन्हें लगता है कि कुर्मी-कोयरी जो उनका वोटबैंक है, वो भला कहा राज्य से बाहर जाता है. औऱ वैसे भी यहां रखा क्या है सो आने पर रोक लगाने से तो खुश ही होगा.
दरसल पीएम मोदी को आर्थिक स्थिति को लेकर खासी फिक्र है. लेकिन उन्होंने पिछले दिनों अर्थव्यवस्था का पूरा अध्ययन कर लिया है. निर्मला सीतारमन को शायद मालूम है कि नहीं कि देश की अर्थव्यवस्था बेहद मजबूत है.जैसा पीएम ने बताया है. फ्रेकलिन म्युचुअल फंड से मार्केट में हताशा रोकने के लिए रिजर्व बैंक को टोपी पहनाई गई है. पचास हज़ार करोड़ रुपए आरबीआई देगा. लेकिन औऱ भी गम है ज़माने में मुहब्बत के सिवा.
सवाल ये है कि कोरोना से जितनी मौत हो रही हैं उससे दोगुना मौतें भूख और बेरोज़गारी से होना शुरू हो गई हैं. अभी मजदूरों के पलायन के हालात देखते हुए और लॉकडॉउन के दौरानके हालात में ऐसी मौत के आंकड़ें बताते हैं कि कोरोना से ज्यादा केंद्र सरकार की शॉक ट्रीटमेंट वाली नीतियां खतरनाक हैं. एक अमेरिकी अर्थशास्त्री ने तो साफ तौर पर कहा है कि भारत के पीएम मोदी योजना के बारे में कोई समझ नहीं रखते औऱ ये उनके फैसलों से स्पष्ट समझ में आता है. देश में साठ फीसदी उद्योग औऱ काम-धंधे बंद हैं, ऐसे हालात में बेरोज़गारी की दर सिर्फ पच्चीस फीसदी मानना शुतुरमुर्ग की तरह आंखें बंद करना है. एक अर्थशास्त्री का दावा है कि करीब पांच करोड़ लोगों की नौकरी खत्म हो गई हैऔर 1.7 करोड़ उद्योग-धंधे प्रभावित हुए हैं. आने वाले दिनों में और भी कई काम-धंधे छोटे होंगे और छंटनियां जारी रहेंगी. इसमें मध्यम वर्ग से लेकर निम्न वर्ग, शहरी मजदूर तक शामिल हैं.
सबसे बड़ी बात ये है कि रोजगार के लिए आजादी के बाद से शहरों में आ रहे मजदूर नोटबंदी और अब कोरोनाबंदी के डर से गांव लौट रहे हैं. ऐसे में क्या ग्रामीण अर्थव्यवस्था इनका बोढ उठाने की हालत में है. क्या बाढ़ और सूखे से जूझ रहे गांव इतने मजदूरों को रोजगार दे पाएंगे. इस विषम परिस्थिति के बारे में विचार करने के बजाय हर रोज़ कुछ सुबह बड़े मीडिया हाउसेज़ के साथ दिन भर की चकल्लस का एजेंडा तय कर दिय़ा जाता है. कुछ दिन कोरोना का रोना, फिर मोदी विजेता, तो किमजोंग-उन, या फिर चीन की चालबाज़ी, तबलीगी जमात के बाद पालघर, ये एजेंडे पर चैनलों पर बहस के साथ ही इन दिनों प्रिंट की खबरों को देख कर भी घिन आने लगती है. सरकारी खैरात पर पल रहे मीडिया को अब साख की भी कतई चिंता नहीं रही. मजदूरों की भीड़ दिखाई जरूर जाती है लेकिन किसी केजरीवाल या किसी उद्धव ठाकरे को निशाना बनाने के लिए, या फिर उनमें हिंदू-मुसलमान का एंगल निकालने के लिए.
दरसल लोकतंत्र की आड़ में राजतंत्रीय तरीके से सरकार चलाने के अभ्यस्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ये खास शैली है. पहले लॉकडॉउन फिर भूख से बिलबिलाती जनता की जिम्मवारी खुद जनता के नाम. खुद को उपदेशक की तरह किसी उत्तरदायित्व से ऊपर रखना. लेकिन समस्या यहां ये आ रही है कि इस विपदा का ठीकरा किस पर फोड़ा जाए. कोरोना के सामने सरकार ने आत्म समर्पण कर दिया है. उसमें मालूम है कि संक्रमण अपने चरम तक जाएगा क्योंकि इसे वक्त पर रोका नहीं गया. और जनता को उसके नतीज़े भुगतने ही होंगे. सरकार को फिक्र अपनी हुकूमत की है. अगर बाज़ार बंद होंगे तो तिज़ारत बंद हो जाएगी. तिज़ारत बंद तो फिर सियासत किस काम की. ऐसे में बाज़ार खोलने के लिए दबाव है. वहीं वोट के लिए कोरोना को रोकने का सेहरा भी अपने सिर बांधने की फिक्र है. वैसे शहर से ले कर गांव तक सब्जी की दुकानों पर भगवा झंडे फहरवा कर वोटबैंक जुटा लिया गया है. पीएम मोदी ने संयुक्त अरब अमीरात की नाराज़गी पर महज मिजाज़पुरसी के लिए कोरोना को किसी संप्रदाय से ना जोड़ने वाला बयान दिया था. मोहन भागवत भी मीडिया के लिए अलग बयान देते हैं और स्वयंसेवकों को कई ज्ञान नहीं देते, जाहिर है कि राने रास्ते के अनुसरण का ही आदेश है. कतर का बयान आने के बाद, अगले दिन से पालघर हत्याकांड पर बहस शुरू हो गई. इस पर बहस नहीं हुई कि मॉब लिंचिंग के खिलाफ कानून लाने के लिए जिन पैंतालीस बुद्धिजीवियों ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा था, उनके खिलाफ मुकदमें क्यों दर्ज किए गए.
देश में लॉकडॉउन को लेकर कयासबाज़ी तेज़ हो गई है. प्रधानमंत्री नरेंद्र देश की माली हालात को लेकर भी अंदर से खासे चिंतित हैं. उन्होंने एक दो दिन पहले ही पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा है कि किसी को फिक्र करने की ज़रूरत नहीं, देश की अर्थव्यवस्था बहुत मजबूत है. पता नहीं कैसे कहते हैं मोदीजी, क्या पूरे देश का रोजकोष पीएमकेयर बना दिया गया है. या फिर पीएमकेयर में टैक्सहैवेन्स से इतना पैसा मंगा लिया गया है कि फिक्र करने की अब ज़रूरत नहीं रही. लेकिन पंद्रह लाख के जुमले ने उनके इस तरह के जुमलों से भरोसा उठा दिया है. सरकार एमएसएमई को कर्ज देने के लिए तीन लाख करोड़ रुपए का आवंटन करने जा रही है. जबकि हकीकत ये है कि भारतीय बैंक पहले ही 10.5 लाख करोड़ रुपए एनपीए के बोझ से दबे हुए हैं. जिनमें बड़े राष्ट्रीयकृत बैंक का हिस्सा बड़ा है. पहले से माना जा रहा है कि 2020 में भारत का एनपीए अनुपात 1.9 रहने की आशंका है. ज़ाहिर है कि वित्तीय हालत बिगड़ने से निवेशक जोखिम से बचेंगे और लोन प्रभावित होंगे.
मुद्रा लोन के तहत दिया गया कर्ज का बड़ा हिस्सा, पहले ही एनपीए की श्रेणी में शुमार है. हालात ये है कि राजनीतिक नेतृत्व कर्ज उपलब्ध कराने का दावा करता है लेकिन बैंक ज़रूरतमंद को कर्ज नहीं देता. बैंक के लिए लौटाने की क्षमता रखने वाला ही ऋण लेने लायक है.
सबसे बड़ी फिक्र आने वाले दिनों में बेरोजगारी कोरोना की बीमारी से ज्यादा भयावह रूप लेने वाली है. भूख भी कोरोना से ज्यादा खतरनाक साबित होगी.लॉकडॉउन के नतीज़े बताते हैं कि 96 फीसदी प्रवासी मजदूरों तक सरकारी राशन नहीं पहुंचा है, 90 फीसदी मजदूरों को उनके मालिकों ने मजदूरी तक नहीं दी है, और ना आगे देंगे. सत्तर फसदी से ज्यादा के पास तो दो सौ रुपए भी बाकी नहीं हैं. लेकिन लॉकडॉउन अभी बाकी है...देश की जनता को अभी बहुत भुगतना बाकी है. क्योंकि केंद्र सरकार के पास राजनीतिक इच्छा शक्ति का अभाव है. जनता को सदमा दे कर फैसला थोप देना छप्पन इंच की निशानी नहीं होती. उसके दुख दर्द और घावों को भर कर ही जननायक बना जा सकता है.
जन नायक से याद आया ,...ऐसे में कुछ स्तंभकारों का मानना है कि पीएम मोदी के सामने सही मायने में जननायक बनने का आखिरी मौका है. ये वो मौका है जब वो अपनी सभी पुरानी भूल को धो सकते हैं और जनहित की नीतियों पर चल कर साबित कर सकते हैं कि वो सचमुच एक गरीब के बेटे हैं.
-अंशुमान त्रिपाठी