कोरोना-संक्रमण के सबक
-अंशुमान त्रिपाठी
एक नहीं दो-दो वायरसों से निपटने की है जरूरत
एक साथ दो मानवीय त्रासदियों से मुकाबला की तैयारी
चीन मे दोबारा संक्रमण ने दुनिया को दोबारा दहशत में डाल दिया है. अमेरिका में 33 हज़ार से ज्यादा और दुनिया भर से कुल डेढ़ लाख लोगों की बलि लेने के बाद वुहान में दोबारा 1290 लोगों के प्राण ले चुका है. हमारे देश में गति धीमी ज़रूर है लेकिन सभी को संक्रमण के ढलान पर आने का बेसब्री से इंतज़ार है. लेकिन सवाल ये है कि ढलान पर आने के बाद क्या कोरोना वापिस चला जाएगा. और अगर कोरोना के साथ रहना पड़ा तो हमें कैसे रहना होगा.
अगर हम ईमानदारी से ये देखें कि कोरोना संक्रमण ने मानवता को क्या संदेश दिए हैं तो बहुत चौंकाने वाले सबक सीखने को मिलेंगे. मज़े की बात ये है कि अगर हम इन सबक को खारिज करना भी चाहें तो भी इस हकीकत को खारिज नहीं कर सकते. ये पहला सच है कि कोरोना फिलहाल जाने के लिए नहीं आया है.और दूसरा सच ये है कि अगर कोरोना से लड़ना है तो एकजुट हो कर लड़ना होगा. क्योंकि या तो धरती से कोरोना को मिटाना है तो करुणा और एकजुटता से ही मिटाया जा सकेगा. लेकिन दुनिया की राजनीति इतनी क्रूर औऱ निर्मम हो चुकी है कि उसे कोरोना बर्दाश्त है लेकिन समाज में एकजुटता, भाईचारा बर्दाश्त नहीं है. आईए पड़ताल करते हैं कि करोना का समाज के भाईचारे से रिश्ता क्या है.
कोरोना संक्रमण हवाई और समुद्री मार्ग से विदेश आने-जाने वाले यात्रियों के जरिए अपने देश में आया.केंद्रीय कैबिनेट सचिव राजीव गाबा बताते हैं कि 18 जनवरी से 23 मार्च के बीच देश में पंद्रह लाख लोग भारत आए. उन्होंने राज्यों को लिखे नाराज़गी भरे पत्र में कहा कि बाहर से आने वाले यात्रियों की मॉनिटरिंग की तादाद और कुल यात्रियों की तादाद में भारी अंतर दिखाई पड़ रहा है, औऱ इससे कोरोना के खिलाफ लड़ाई पर गंभीर असर पड़ा है. ज़ाहिर है कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में आधा सच बोल रहे थे. उन्होंने दावा किया था कि जानकारी मिलते ही हवाई अड्डों पर कोरोना क्रीनिंग शुरू हो गई थी. लेकिन बिकाऊ मीडिया को इन पंद्रह लाख लोगों की सही तरीके से मॉनिटरिंग या स्क्रीनिग नहीं होने पर सरकार से सवाल पूछने की हिम्मत नहीं पड़ी.
पंद्रह लाख लोगों की स्क्रीनिंग ना हो पाने के कारण जब केंद्र सरकार ने जब खुद को कठघरे में पाया तो उसने इस मानवीय त्रासदी को अपने घृणा आधारित राजनीतिक से धार दे दी. तब्लीगी जमात को पहले मरकज पर इज्तिमें की इजाज़त दे दी और फिर वहा से निकलने की कोशिशों को नाकाम भी कर दिया. जब तक मीडिया में हल्ला नहीं हुआ और जमात को कोरोना फिदायीन तक नहीं कह दिया गया तब तक उन्हें बस पास नहीं दिए गए. और तो और दिल्ली सरकार ने भी जमात के संक्रमित लोगों की हर दिन अलग बुलेटिन जारी कर देश भर को ये संदेश देने की कोशिश की कि पूरे देश में संक्रमण की बहुत बड़ी वजह जमात और सिर्फ जमात ही है. बीजेपी और आरएसएस की सोशल मीडिया विंग ने इस बात का बवंडर बना दिया. कोरोना को लेकर लापरवाही दिखाने वाली जो निकम्मी सरकार कठघरे में आ गई थी, वो हमलावर हो कर अपने हिंदू- वोटबैंक के पीछे छुप गई.
वाकई आम आदमी के दिमाग में लगातार हर दिन जमात से फैलते संक्रमण की बात इस कदर भर दी गई कि आज जब देश में संक्रमति लोगों की तादाद 12 हज़ार से ऊपर पहुंच गई है तब भी मुसलमानों को ही इसका ज़िम्मेदार बताया जा रहा है.
हालात ये हो चले हैं कि सब्जी बेचने वालों को हिंदू-मुसलमान के आधार पर प्रताड़ित किया जा रहा है. और तो और गुजरात में तो सरकारी अस्पताल में हिंदू-मुसलमान के आधार पर अलग अलग वार्ड बनाए जाने का मामला सामने आया है. अब जम्मू के गुज्जर समुदाय ने शिकायत की है कि नफरत के इस वायरस की वजह से उन्हें भी सामाजिक बहिष्कार झेलना पड़ रहा है.
भय, संदेह और प्रशासन के प्रति अविश्वास का माहौल इस कदर बना दिया गया है कि एक कोरी अफवाह भी अशिक्षित मुसलमानों के बीच दहशत फैला रही है. भूख, कोरोना और दहशत के बीच उनकी हर प्रतिक्रिया को सोशल मीडिया पर तिल का ताड़ बना कर पेश किया जा रहा है.
हैरानी की बात .ये है कि जमातियों की बेवकूफी को साज़िश की तरह देखने और दिखाने वालों को यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का राम नवमी को अयोध्या दौरा और बड़ी तादाद में लोगों के साथ पूजा पाठ नज़र नहीं आ रहा. ना ही ताली और थाली बजाने वालों के सड़कों पर निकाले जा रहे जुलूसों पर उनकी नज़र पड़ रही है.हाल में कर्नाटक के कलबुर्गी में रथयात्रा निकालने के लिए एक मंदिर में हजारों की तादाद में लोग जुट गए.
सीएए, एनआरसी और एनपीआर के जरिए पहले ही मुसलमानों में डर बिठा दिया गया है. उनके प्रतिरोध करने पर दिल्ली में दंगों के जख्म दे दिए गए. दंगों से बेघरबार हुए हज़ारों की तादाद में गरीब और मजदूर पहले ही दिल्ली से भरपाए और अपने अपने गांव लौट गए. उनमें ज्यादा तादाद मुसलमानों की ही रही. पुलिस-प्रशासन की भूमिका पर दुनिया भर की मीडिया में सवाल उठे लेकिन सरकार की कान पर जूं तक नहीं रेंगी. प्रधानमंत्री ने एक बयान तक नहीं दिया.
अब जब देश भर में आरएसएस ने नफरत का वायरस फैला दिया तो प्रधानमंत्री करुणावतार बन कर टीवी की स्क्रीन पर हर दूसरे हफ्ते अवतार ले रहे हैं. एक बार भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिंदू-मुसलमान करने वालों को नफरत का वायरस फैलाने से रोकने के लिए कोई सख्त संदेश नहीं दिया. नरेंद्र मोदी की ये राजनीतिक अदा उन्हें देश के दूसरे राजनीतिज्ञों से अलहदा बनाती है.
दरसल कोरोना की लड़ाई ने तय कर दिया है कि अगर पूरा देश, पूरा समाज और सभी धर्म मिल कर इस वायरस का मुकाबला नहीं करेंगे तो कोरोना जाने वाला नहीं है. लेकिन तकलीफ की बात ये है कि मानवता को एक साथ दो वायरसों से लड़ना पड़ रहा है. कोरोना से पहले उसे नफरत का वायरस झेलना पड़ रहा है. क्योंकि नफरत की सियासत करने वाले कोरोना से ज्यादा मानवीय करुणा से डरते हैं. उन्हें लगता है कि मानवीय त्रासदी में भाईचारा, प्रेम, करुणा, सद्भाव जैसी भावना बढ़ेगी और जनता का ध्यान विकास, स्वास्थ्य, शिक्षा औऱ रोजगार जैसे मुद्दों पर केंद्रित होगा तो उन्हें देश में राजनीति करना मुश्किल हो जाएगा. क्योंकि कोरोना से भी बड़ी त्रासदी को सहने के लिए हमें तैयार होना होगा. वो है भयावह मंदी औऱ बेरोज़गारी की त्रासदी. जिस अमेरिका में ग्यारह साल में पैदा किए गए रोजगार के अवसर महीने भर के भीतर खत्म हो जाते हैं.उस अमेरिका के नक्शेकदम पर चलते हुए हम कम से कम देश की पचास फीसदी आबादी को दो वक्त की रोटी मुहय्या नहीं करवा सकते.
ज़रूरी है कि एक नहीं बल्कि दो वायरस औऱ दो मानवीय त्रासदियों से निपटने के लिए सभी को सक्रिय भूमिका निभानी पड़ेगी.
- अंशुमान त्रिपाठी