- आढ़ती नहीं होते बिचौलिए, वो हैं सर्विसप्रदाता, किसानों का कहना है -सरकार लाना चाहती है सुपर मिडिलमैन
- November 13, 2020
 by Anshuman Tripathi - |
आढ़तिए नहीं होते बिचौलिए. आढतियों को गाली मत बनाईए साहेब !
अंशुमान त्रिपाठी
वो बिचौलिए नहीं हैं..आप भी बिचौलिय़ों को हटाने की बात कर रहे हैं और हम भी बिचौलिए हटाने की बात कर रहे हैं. लेकिन तय करना होगा कि बिचौलिया है कौन. अगर इन किसान कानूनों को ध्यान से देखें तो बिचौलिया तो सरकार हैं. अब ज़रूरत किसे हटाने की है, ये जनता तय करेगी... आप कहते हैं कि आपके खून में व्यौपार है. हम जानते हैं कि आज के दौर में व्यौपार के लिए ही हर सियासतदान प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचना चाहता है. लेकिन उस कुर्सी पर बैठ कर देश की पगड़ी का खयाल रखना पड़ता है. यूं ही किसी की पगड़ी उछालना अच्छी बात नहीं साहेब, आढ़तियों से सीखिए- वो किसान की पगड़ी की इज्ज़त रखते हैं.ये उनसे नहीं खुद किसान से पूछिए कि कौन उन्हें अपने घर ठहराता-खिलाता-पिलाता है, हारी-बीमारी में कौन नकद ले कर खड़ा हो जाता है. वो कहते हैं- पगड़ी की कीमत आप क्या जानोगे नरेंद्र बाबू, हमारे लिए तो किसान की पगड़ी देश की इज़्जत है साहेब, हमारे खून में व्यौपार नहीं है, कभी ब्याज की बात नहीं करते. बिटिया की शादी से लेकर खाद-बीज-यूरिया से ले कर बुआई-कटाई तक, रातबिरात किसान के साथ चोली दामन की तरह रहते हैं. हम आढ़तिए हैं, हमारी इज़्जत है. हम बिचौलिए नहीं. सच बात तो ये है कि आज बिचौलिया कहने वाली बीजेपी जब विपक्ष में थी तो आढ़तियों की कीमत समझती थी...मत भूलिए, आढ़त के गल्ले से निकले वोट और चंदे से भारतीय जनता पार्टी दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बनी है. याद रखिए, चवन्नी का चंदा अडानी के धंधे से बड़ा होता है. क्योंकि इसमें किसान-मजदूर का पसीना और माटी की महक रची-बसी होती है. रामनामी पहन कर स्वांग करते करते राजनीति के लिए राम को ही खरीदना-बेचना शुरू कर दिया गया.ऐसे में किसी को सरकार के झूठ पर हैरत नहीं है. आज सरकार का मुखौटा उतर चुका है. आढ़तियों का कहना है कि मोदीजी अगर हमारी ज़िंदगी जी लेंगे तो आप चाय बेचने के पाखंड की कहानी सुनाना भूल जाएंगे. आढ़ती के लिए रात होती है ना दिन. रात में किसी भी वक्त माल पहुंचता है, सुबह तीन बज़े से ही थड़े पर चहल पहल शुरू हो जाती है. ये बिचौलिए नहीं, साहेब आपकी भाषा में सर्विस प्रोवाइडर हैं. ये माल खरीदते नहीं, किसान का माल बिकवाते हैं, कमीशन तय कर के. जितना ज्यादा दाम उसे मिलता है, उतना ही हमारा कमीशन बनता है.दस परसेंट कमीशन में किसान की गाड़ी से माल उतरवाने, ग्राहक की गाड़ी पर चढ़वाने, चाय-पानी, नाश्ता- खाना, बिजली-पानी औऱ मंडी टैक्स चुकाते हैं. यही नहीं किसान को नकदी तो ग्राहक को उधारी में धंधा करना पड़ता है. कई बार इन्हें धोखा खाना पड़ता है. नोटबंदी में लाखों का नकदी पानी हो गया. मोदीजी की नज़र में छोटे व्यापारियों का ये पैसा काला धन कहलाता है. अकसर बड़े ग्राहक अदायगी दो से तीन महीने में करते हैं. उधर किसान की ज़रूरत का भी खयाल रखना पड़ता है. आपके अडानीजी औऱ अंबानीजी इस इंसान रिश्ते को शायद ही समझ पाएंगे. भारतीय संयुक्त परिवार की तरह किसान और आढ़तियों का रिश्ता है. इस रिश्ते में दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं. बेशक ये किसान के पैसे पर पलने वाले हैं, लेकिन उसे बेहतर सर्विस दिलाने के लिए मेहनताना लेते हैं. वो उत्पादक है तो ये सर्विसप्रदाता. देश का नागरिक बहुत ज्ञानी है. बिचौलिया शब्द किस पर शोभा देता है, ये वे बेहतर जानते हैं.. वो ये जानता है कि दो-तीन बड़े पूंजीपतियों से देश के चुनाव जीतने के लिए हज़ारों करोड़ लिए गए. और पिछले छह साल में रियायतें दे कर लाखों करोड़ चुका भी दिए. ज़ाहिर है कि सरकार के खून में व्यौपार है. ये अलग बात है कि व्यौपार में साझेदारी के लिए हमेशा लिखत-पढ़त ज़रूरी नहीं होती, क्योंकि जब तक भरोसा है तब तक सत्ता और कारोबारी का रिश्ता है. देश की संपत्ति कारोबारियों के हाथ बेचने में सरकार पिछले छह साल से बिचौलिए की भूमिका निभा रही है. टेलीकॉम, रिटेल,डिफेंस, हवाई अड्डे, खदानें, बीपीसीएल वगैरह देश की संपत्ति बेचने के साथ अपने दोस्तों की कंपनियों के लिए किसानों से उनकी खेती छीनने की कोशिश कर रहे हैं. जमाखोरों की तरफ से लड़ने वाली बिचौलिया बन चुकी है सरकार, शायद बीजेपी की राजनीति को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने सबसे बेहतर समझा-जाना है. उनके मुताबिक बीजेपी लाश पर रखे मक्खन को भी बाज़ार में बेचने वाले लोग हैं, ऐसे में सरकार से गुजारिश है कि किसानों की रोजी-रोजगार और ज़िंदगी का सौदा मत करिए, मत बनिए पाप का भागी. सरकार का मतलब छीनना नहीं, जनता को सहूलियत, मौके और मोहब्बत देना है.
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